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छक्खंडागम
समयोंमें होनेवाले कलश, दर्पण, हल, मूसल, रथ, गाड़ी छत्र, चमर, सिंहासन, धनुष, बाण आदि काममें आनेवाली वस्तुओंका, तथा तात्कालिक मनुष्योंके रहनेके मकान, उद्यान, नगर प्रामादिका माप आत्मांगुलसे किया जाता है। छह अंगुलोंका एक पाद, दो पादोंकी एक विहस्ति ( विलस्त या वेथिया ), दो विहस्तियोका एक हस्त (हात), दो हाथोंका एक किष्कु, दो किष्कुओंका एक दंड, युग, धनुष, नाली या मूसल होता है। दो हजार धनुषोंका एक कोश और चार कोशका एक योजन होता है ।
अद्धापल्यका प्रमाण ऊपर बतला आये हैं, उस अद्धापल्यके अर्धच्छेद'प्रमाण अद्धापल्योंका परस्पर गुणा करनेपर सूच्यंगुलका प्रमाण आता है । सूच्यंगुलके वर्गको प्रतरांगुल और घनको घनांगुल कहते हैं । अद्धापल्यकें असंख्यातवें भागप्रमाण', अथवा मतान्तरसे अद्धापत्यके जितने अर्धच्छेद हों, उसके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलोंके परस्पर गुणा करनेपर जो प्रमाण आता है उसे जगच्छ्रेणी कहते हैं । जगच्छ्रेणीके सातवें भागको राजु या रज्जु कहते हैं । इस राजुका प्रमाण मध्यलोकके विस्तार बराबर है । जगच्छ्रेणीके वर्गको जगत्प्रतर और घनको घनलोक कहते हैं ।
ये ऊपर बतलाये गये पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर और घनलोक ये आठोंही उपमा प्रमाणके भेद हैं। इनका उपयोग प्रस्तुत ग्रन्थकी द्रव्य, क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे बतलायें गये प्रमाणोंमें किया गया है ।
४ भावप्रमाण- उपर्युक्त तीनों प्रकारके प्रमाणोंसे वस्तुकी वास्तविक संख्याके . अधिगम अर्थात् जाननेको ही भावप्रमाण कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जहां जिस गुणस्थान और मार्गणास्थानका द्रव्य, काल वा क्षेत्रकी अपेक्षासे जो प्रमाण बतलाया गया है, वहां , उस प्रमाणके यथार्थ जाननेको ही भावप्रमाण समझना चाहिए ।
संख्या प्ररूपणामें जीवोंकी संख्याका निरूपण पहिले गुणस्थानोंकी. अपेक्षा और पीछे मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा किया गया है । सूत्रकारने पहिले पृच्छा सूत्र-द्वारा प्रश्न उठाकर उत्तर सूत्रके द्वारा संख्याका निर्देश किया है। यथा- मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने है ? ' उत्तर दिया' अनन्त हैं।' अब यहां शंका होती है कि अनन्तके तो स्थूल रीतिसे अनेक भेद हैं और सूक्ष्म दृष्टिसे अनन्त भेद हैं। यहांपर अनन्तसे कितने प्रमाणवाली राशिका ग्रहण किया जाय ? इस शंकाका समाधान आचार्य- काल प्रमाणका आश्रय लेकर किया कि अतीत कालमें जितनी. अनन्ती उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी बीत चुकी हैं, उनके समयोंका जितना प्रमाण है, उससे भी
१. किसी भी विवक्षित राशिके आधे आधे भाग करनेपर एककी संख्याप्राप्त होने तक जितने टुकडे या भाग होते हैं, उन्हें अर्धच्छेद कहते है। २. देखो राजवार्तिक अ. ३. सू. ३८ की टीका। ३. देखो त्रिलोकप्रज्ञप्ति अ. १, गा. १३१ ।
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