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प्रस्तावना
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रोमानोंसे भरे जिनके और खंड कैंचीसे न हो सकें । पुनः उस कुंडमेंसे एक एक रोमखंडको सौ सौ वर्षके पश्चात् निकाले । इस प्रकार उन समस्त रोम-खंडोंके निकालनेमें जितना काल लगेगा, वह व्यवहारपल्य कहलाता है । इस व्यवहारपल्यको असंख्यातकोटि वर्षोंके समयोंसे गुणित करनेपर उद्धारपल्यका प्रमाण आता है । इसके द्वारा द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है । इस उद्धारपल्यको असंख्यात कोटि वर्षोंके समयोंसे गुणित करनेपर अद्धापल्यका प्रमाण आता है। शास्त्रोंमें कर्म, भव, आयु और कायकी स्थितिका वर्णन इसी अद्धापल्यसे किया गया है। अर्थात् जहां कहीं भी 'पल्योपम' ऐसा शब्द आये तो उससे अद्धापल्य प्रमाण कालका ग्रहण करना चाहिए । इस संख्याप्ररूपणामें इसी पल्योपमका उपयोग हुआ है। दश कोडाकोडी अद्धापल्योपमोंका एक अद्धासागरोपम होता है जिसे प्रस्तुत ग्रन्थ में तथा अन्य ग्रन्थों में साधारणतः सागरोपम या सागरके नामसे उपयोग किया गया है । दशकोडाकोड़ी अद्धासागरोपमोंकी एक उत्सर्पिणी और इतनेही कालकी एक अवसर्पिणी होती है। इन दोनोंको मिलाकर वीस कोडाकोडी सागरोपमोंका एक कल्पकाल होता है।
२ क्षेत्रप्रमाण- पुद्गलके सबसे छोटे अविभागी अंशको परमाणु कहते हैं। यह परमाणु एक प्रदेशी होनेसे इतना सूक्ष्म है कि उसका ग्रहण इन्द्रियोंसे तो क्या, बड़े से बड़े सूक्ष्म-दर्शक यन्त्रसे भी सम्भव नहीं है। वह आदि, मध्य और अन्तसे रहित है। वह अविभागी परमाणु जितने आकाशको रोकता है, उतने आकाशको एक क्षेत्रप्रदेश कहते हैं। दो या दोसे अधिक परमाणुओंके समुदायको स्कन्ध कहते हैं । अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायवाले स्कन्धको अवसन्नासन्न कहते हैं । आठ अवसन्नासन्नों का एक सन्नासन्न स्कन्ध, आठ सन्नासन्नोंका एक तृटरेणु, आठ तृटरेणुओंका एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओंका एक रथरेणु, आठ रथरेणुओंका उत्तम भोग भूमिज जीवका बालाग्र, ऐसे आठ बालानोंका एक मध्यम भोगभूमिज जीवका बालाग्र, ऐसे आठ बालानोंका एक जघन्यभोगभूमिज बालाग्र, ऐसे आठ बालानोंका एक कर्मभूमिज जीवका बालाग्र, आठ कर्मभूमिज बालगोंकी एक लिक्षा ( बालोंमें उत्पन्न होनेवाली लीख ) आठ लिक्षाओंका एक जूं, आठ जूवोंका एक यवमध्य ( जौके बीचका भाग) और आठ यवमध्योंका एक अंगुल होता है । यह अंगुल तीन प्रकारका है- उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । आठ यवमध्योंके बराबर जो अंगुल होता है, उसे उत्सेधांगुल कहते हैं। पांच सौ उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है। अर्थात् पांचसौ धनुषके ऊंचे शरीरवाले अवसर्पिणी कालके प्रथम चक्रवर्ती या तत्सम ऊंचे शरीरवाले यहांके या विदेहोंके मनुष्योंके अंगुलको प्रमाणांगुल कहते हैं। कालके परिवर्तनके साथ भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्तरोत्तर हीन-हीन अवगाहनावाले मनुष्योंके अंगुलका जिस समय जितना प्रमाण होता है, उसे आत्मांगुल कहते हैं । मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकियोंके शरीरकी अवगाहना, तथा देवोंके निवास और नगरादिका माप उत्सेधांगुलसे ही किया जाता है। द्वीप, समुद्र, पर्वत, वेदी, नदी, कुंड, क्षेत्र आदिका माप प्रमाणांगुलसे किया जाता है। विभिन्न
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