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अक्षर
५. स्थापना या संस्थानाक्षरका लक्षण ध, १३/५.k,४८/R4/४ जंतं संठाणक्खरं णाम त ठवणक्वरमिदि घेत्तव्य । काट्ठवणा णाम । एदमिदमक्खर मिदि अभेदेण बुद्धीए जा दुबिया लीहादव वा तं ट्ठवणक्वरणाम।-संस्थानाक्षरका दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । प्रश्नस्थापना क्या है 1 उत्तर-'यह वह अक्षर है। इस प्रकार अभेद रूपसे बुद्धिमें जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना
अक्षर है।
गोजी /जी./३३३/७२८/१ पुस्तकेषु तद्देशानुरूपतया लिखितसंस्थान स्थापनाक्षरम् ।-पुस्तकादि विर्षे निजदेशको प्रवृत्तिके अनुसार अकारादिकनिका आकारकरि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिए ।
५. बीजाक्षरका लक्षण ध.१/४.१,४४/१२७/१ सखित्तसद्दरयणमणं तत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसगयं बोजपदं णाम । -संक्षिप्त शब्द रचनासे सहित व अनन्त अोंके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे संयुक्त बोजपद कहलाता है।
६. ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत अक्षरका लक्षण घ १३/५५,४६२४८/३ एकमात्रो ह्रस्व', विमात्रो दीर्व', त्रिमात्रः प्लुत , मात्राद्धं व्यब्जनम् । -एक मात्रावाला वर्ण ह्रस्व होता है. दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तोन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यञ्जन होता है।
७. व्यंजन स्वरादिकी अपेक्षा भेद व इनके संयोगी भंग ध १३/५.५.४५/२४७/८ वग्गक्रवरा पंचवीस, अंतत्था पत्तारि, चत्तारि उम्हाक्रवरा. एव तेत्तीसा होंति बंजणाणि ३३ । अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स-दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्ताबीस होति । एचा ह्रस्वा न सन्तीति चेव-न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात। अजोगवाहा अ अ-क-प इति चत्तारि चेत्र होति ।
एवं सबखराणि चउसठ्ठी। ध. १३/५,५,४६/२४६/६ एदेसिमक्रवराण सखं रासि दुवे विरलिय दुगुणिदमण्णोण्णेण संगुणे अण्णोण्णसमब्भासो एत्तिओ होदि१८४४६७४४०७३७०१५५१६१६ । एदम्मि सखाणे रूवूणे कदे सजोगखराणं गणिदं होदि त्ति णि दिसे। वर्णाक्षर पच्चीस, अत्तस्थ चार और ऊष्माघर चार इस प्रकार तेतीस व्य जन होते है। अ. इ, उ, ऋ,ल. ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व. दीर्घ और प्लुतके भेदसे सत्ताईस होते है । शंका-एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ इनके ह्रस्व भेद नहीं होते । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राकृतमें उनमें इनका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता। अयोगवाह अ अ-क और प ये चार ही होते है। इस प्रकार सब अक्षर ६४ होते है। इन अक्षरोंकी सरख्याकी राशि प्रमाण २ का विरलन करके परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त हुई राशि इतनो होती है-१८४४६७४४८७३७०६५५१६१६ । इस संख्यामें मे एक कम करनेपर सयोगाक्षरोका प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश करना चाहिए। (विस्तारके लिए दे ध. १३/५,५,४६/२४१-२६०) (गो जी./जी.प्र /३५२-३५४/७४६-७५६)। घ. १३/५.५,४७/२६०/१ जदि वि एगसजोगवरमणेगेसु अत्येसु अक्वरबच्चासाबच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्रवरमेक्क चेव, अण्णोण्णमवेक्विय पाणकज्जजणयाण भेदाणुववत्तोदो । यद्यपि एक सयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरों के उलट-फेरके बलमे रहता है तो भो अक्षर एक ही है, क्योंकि एक दूसरेको देखते हुए ज्ञान रूप कार्यको उत्पन्न करनेकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। ६. अन्य सम्बन्धित विषय * अक्षरात्मक शब्द-दे, भाषा। * अक्षरगता असत्यमृषा भाषा-दे. भाषा।
अगारी * आगमके अपुनरुक्त अक्षर-दै. आगम १। * अक्षर संयोग तथा संयोगी अक्षरोंकी एकता-अनेकता
सम्बन्धी शंकाएँ-दे. घ. १३/५.५,४६/२४६-२५०॥ अक्षर ज्ञान-द्रव्य श्रुतका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान II । अक्षर म्लेच्छ-वे, म्लेच्छ। अक्षर समास-द्रव्य श्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रतज्ञान II । अक्ष संचार-गणित सम्बन्धी एक प्रक्रिया-दे. गणित 11/३ । अक्षांश-(ज.प./प्र. १०५) Latitude. अक्षिप्र-मतिज्ञानका एक भेद-वे. मतिज्ञान ४। अक्षीण महानस ऋद्धि-दे. ऋद्धि। अक्षीणमहालय ऋद्धि-दे. अधि अक्षीय परिभ्रमण (घ.५/प्र.२७) Axial Revolution. अक्षोभ-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अक्षौहिणी-सेनाका एक अंग-दे. सेना। अखंड-१. द्रव्यमें खण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे. द्रव्य ४ । २. गुण
में खण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे. गुण २। ३. चौथे नरकका सप्तम ___पटल-दे. नरक ५ । ४. ( ज प./प्र. १०५) Continuous.
अगर्त-भरत क्षेत्रमें पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य ।। अगाढ़-सम्यग्दर्शनका एक दोष । अन ध./२/५७-१८ वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता। स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाद वेदकं यथा ॥७स्वकारितेऽच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यासाविति भ्राभ्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ॥५८॥ अन. ध /२/६९ की टीकामें उद्धृत-यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम् । नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्पष्टयन्ध्यन्तवति यत् ॥
जिस प्रकार वृद्ध पुरुषको लकड़ी तो हाथमें ही बनी रहती है, परन्तु अपने स्थानको न छोडती हुई भी कुछ काँपती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दर्शन देव गुरु व तत्त्वादिककी श्रद्धामें स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है। उसको अगाढ वेदक सम्यग्दर्शन कहते है ।५७ वह भ्रम व सशयको प्राप्त होकर अपने बनाये हुए चैत्यादिमें 'यह मेरा देव है' और अन्यके बनाये हुए चेत्यादि में 'यह अन्यका देव है' ऐसा व्यवहार करने लगता है ॥५८॥ (गो जी /जी प्र/२५/५१/१५) इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल मलिन अगाढ व अनवस्थित है वही नित्य भी है। अन्तर्मुहूर्तसे लेकर ६६ सागर पर्यन्त
अवस्थित रहता है। अगारी–त सू /७/२०अणुवतोऽगारी॥२०॥ या अणुवती श्रावकअगारी है। स सि /9/१६/३५७ प्रतिश्रयार्थिभिः अङ्गयते इति अगार बेश्म, तद्वानगारी.. ननु चात्र विपर्ययोऽपि प्राप्नोति शून्यागारदेव कुलाद्यावासस्य मुनेरगारित्वम् अनिवृत्त विषयतृष्णस्य कुतश्चित्कारणाइ गृह विमुच्य वने वसतोऽनगारत्व च प्राप्नोति इति । नैष दोष भावागारस्य विवक्षित्वात् । चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्ध प्रत्यानिवृत्त परिणामो भावागारमित्युच्यते। स यस्यास्यसाबगारी बने वसन्नपि । गृहे वसन्नपि तदभावादनगार इति च भवति ।-आश्रय चाहनेवाले जिसे अंगीकार करते है वह अगार है। अगारका अर्थ वेश्म अर्थात घर है, जिसके घर है वह अगारी है । शंका-उपरोक्त लक्ष्णसे विपरीत अर्थ भी प्राप्त होता है, क्योंकि शून्य घर व देव मन्दिर आदिमें वास करनेवाले मुनिके अगारपना प्राप्त हो जायेगा। और जिसकी विषय-तृष्णा अभी निवृत्त नहीं हुई है ऐसे किसी व्यक्तिको किसी कारणवश घर छोडकर वनमें बसनेसे अनगारपना प्राप्त हो जायेगा।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोग
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