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अक्रियवान
अक्षर
समय १० वर्ष तक । विधि-प्रतिवर्ष श्रावण शु १० को उपवास ।
मन्य-"ओ ह्रीं वृषभजिनाय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । अक्षर-ध ६/१,६-१,१४/२१/११ स्वरणभावा अक्रवर केवलणाण
क्षरण अर्थात विनाशका अभाव होनेसे केवलज्ञान अक्षर कहलाता है । गो जी जी प्र ३३३/७२८/८ न क्षरतीत्यक्षर द्रव्यरूपतया विनाशाभावात् । द्रव्य रूपसे जिसका विनाश नही होता वह अक्षर है।
२. अक्षरके भेद घ. १३/५,५,४८/२६४/१० लद्धिअनवरं णिव्वत्तिअवखरं सठाणक्रवरं
चेदि तिविहमक्खर । अक्षरके तीन भेद है-लब्ध्यक्षर, निवृत्त्यक्षर, व संस्थानाक्षर । (गोजी/जी प्र. ३३३/७२८/७)
३. लब्ध्यक्षरका लक्षण ध १३/५०५,४८/२६४/११ सुहमणिगोदअपज्जत्तप्पहुडि जाव सुदकेवलि त्ति ताव जे ख ओवसमा तेर्सि लशिअक्रवर मिदि सण्णा.. .. सपहि लद्धिअक्रवर जहण्ण सुहमणिगोदल द्धिअपज्जत्तस्स होदि, उक्तस्स चोद्दसपुब्बिस्स । = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकसे लेकर श्रुतकेवली तक जोवोके जितने क्षयोपशम होते है उन सबको लब्ध्यक्षर सज्ञा है । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता है
और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारीके होता है। गो. जी./जी. प्र ३२२ / ६८२/४ लब्धि मश्रुतज्ञानावरणक्षयोगशम.
अर्थग्रहणशक्तिर्वा, लब्ध्या अक्षरं अविनश्वरं लब्ध्यक्षर तावत क्षयोपशमस्य सदा विद्यमानत्वात् । लब्धि कहिये श्रृतज्ञानावरणका क्षयोपशम वा जानन शक्ति ताकरि अक्षर कहिए अविनाशी सो ऐसा पर्याय ज्ञान ही है, जातै इतना क्षयोपशम सदा काल विद्यमान
विनसें नाहीं है, केई कहै हैं गमन नाहीं करै है, केई कहै हैं तिष्ठ नाहीं है। इत्यादिक क्रियाके अभाव पक्षपात करि सर्वथा एकान्ती होय है तिनिके सक्षेप करि चौरासी भेद किये हैं।
२. सम्यक् एकान्तको अपेक्षाका. अ मू/४१२ पुण्णासाए ण पुण्ण ज़दी णिरीहस्स पुण्ण-स पत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णं वि म आयर कुणह। ४१२॥ पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित) व्यक्तिको हो पुण्यकी प्राप्ति होती है। अत: ऐसा जानकर हे यतीश्वरो,
पुण्यमें भी आदर भाव मत रक्खो। प्र. सा/त प्र./परि । नय नं ३६ अकत नयेन स्वकर्मप्रवृत्तरअकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ॥ ३१ ॥ आत्म द्रव्य अकतृत्व नयसे केवल साक्षी ही है ( कर्ता नहीं ), अपने कार्य में प्रवृत्त रगरेजको देखनेवाले पुरुष
(प्रेक्षक ) की भॉति। पप्रमू. १/५५.६५ अह वि कम्मई बहुविहई णव णव दोस वि जेण ।
सुद्धह एक्कु वि अस्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण ॥५५॥बन्ध वि मोवखु वि सयल्लु जिय जीवह कम्म जणेइ । अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउ भणेइ ॥६॥-जिस कारण आठो ही अनेक भेद वाले कर्म अठारह ही दोष इनमें से एक भी शुद्धात्माके नहीं है, इसलिए शून्य भी कहा जाता है॥५५॥ हे जीव, बन्धको और मोक्षको सबको जीवोंका कर्म ही करता है, आत्मा कुछ भी नहीं करता, निश्चय नय ऐसा कहता है ।
३. अक्रियावादके ८४ भेद ध. ११,१,२/१०७/८ मरीचिकपिलोलुक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलिमाठर
मोद्गत्यायनादीनामक्रियावाददृष्टोना चतुरशीति । - मरीचि, -कपिल. उलूक, गार्य, व्याघभूति, वाइवलि. माठर और मोद्गल्यायन आदि अक्रियावादियोके ८४ मतोंका वर्णन और निराकरण किया गया है। (रा. वा, १/२०/१२/७४/४:८/१/१०/५६२/४ ) (ध.६/४,१, ४५/२०३/४ ), (गो.जी./जी प्र. ३६०/७७०/१२) गो क मू.८८४-८८५/१०६७ णत्थि सदो परदो वि य सत्तपयत्था
य पुण्ण पाऊणा । कालादियादि भंगा सत्तरि चदुपति सजादा 1८८४१ पत्थि य सत्त पदत्था णियदीदो कालदो तिपतिभवा। चोइस इदि पत्थित्ते अक्कि रियाण' च चुलसीदी॥८॥-आगे अक्रियावादीनिके भग कहै है-(नारित) (स्वत परत )x( जीव, अजीव, आस्रव, सबर, निर्जरा, अन्ध, मोक्ष)x(काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव)
=१४२xx५ =७० तथा (नास्ति) (जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष) x (नियति, काल )= १४७४२-१४, मिलकर
अक्रियावादके (७०+१४-८४) चौरासी भेद हुए । (ह पु १०/५२-५३) अक्रियवान-क्रियवान अक्रियवानकी अपेक्षा द्रव्योका विभाग।
-दे. द्रव्य ३। अक्ष-१ स सि /१/१२/१०३ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष
आत्मा । पहिचानता है, वा बोध करता है, व्याप्त होता है, जानता है, ऐसा 'अक्ष' आत्मा है । (रा वा १/१२/२/५३/११) (प्र सा./ता वृ./ १/२२) ( गो जी |जी प्र ३६६/७६५) २. पासा आदि दे निक्षेप ४ । ३ भेद ब भग-दे गणित II/३/१,२ । अक्षम्रक्षण वत्ति-भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे, भिक्षा १/७।। अक्षयनिधिवत-वतविधान सग्रह / ८३ गणना-कुल समय
१० वर्ष , कुल उपवास २०, एकाशना २८०।। किशन सिंह क्रियाकोश। विधि-१० वर्ष तक प्रतिवर्षकी श्रावण
शुक्ला दशमी म भाद्रपद कृष्ण १० को उपवास। इनके बीच २८ दिनमे एकाशन । मन्त्र-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । अक्षयफल दशमी व्रत-वत विधान स.। ८६ गणना-कुल
गो जी जी प्र ३३३/७२८/८ पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवल ज्ञानावरणपर्यन्तक्षयोगशमादुद्भूतात्मनोऽर्थ ग्रहण शमिर्लविध भावेन्द्रिय, तद्रूपमक्षर लैब्ध्यर अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात ।-तहाँ पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवल ज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशमतें उत्पन्न भई जो पदार्थ जाननेकी शक्ति सो लब्धि रूप भावेन्द्रिय तोहि स्वरूप जो अक्षर कहिये अविनाश सो लब्धि अक्षर कहिये जाते अक्षर ज्ञान उपजने को कारण है।
४.नित्यक्षर सामान्य विशेषका लक्षण घ. १३/५,५,४८/२६५/१ जीवाणं मुहादो णिगमस्स सहस्स णिवत्ति
अवरवरमिदि सण्णा । त च णिव्व त्ति अवखरं वत्तमव्वत्तं चेदि दुविह। तत्थ वत्त सण्णिपंचिदिय पज्जत्तरसु होदि। अन्वतं बेईदियपहुडि जाव सण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु होदि। णिव्व त्ति अक्वरं जहण्णय बेइदियपज्जत्तादिसु, उक्कस्सय चोहसव्विस्स । - जीवोके मुख से निक्ले हुए शब्दकी निवृ त्यक्षर सज्ञा है । उस नियक्षरके व्यक्त
और अव्यक्त ऐसे दो भेद है। उनमें से व्यक्त निवृत्त्यक्षर सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके होता है, और अव्यक्त निवृत्यक्षर द्विइन्द्रियसे लेकर सज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक तक जीवो के होता है। जघन्य नित्यक्षर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक आदिक जीवोके होता है और उत्कृष्ट
चौदह पूर्वधारीके होता है। गो.जी /जो प्र ३३३ / ७२८/8 कण्ठोष्ठतात्वादिरथानस्पृष्टतादिकरणप्रयत्ननिर्वर्यमानस्वरूपं अकारादिककारादिम्बरव्यञ्जनरूप मूलवर्णतत्सयोगादिसंस्थान निवृत्त्यक्षरम् । = बहुरि कट, ओठ, तालु आदि अक्षर बुलावने के स्थान अर होठनिका परस्पर मिलना सो स्पृष्टता ताको आदि देकरि प्रयत्न तोहि करि उत्पन्न भया शब्द रूप अकारादि स्वर अर ककारादि व्यञ्जन अर सयोगी अक्षर सो निवृत्यक्षर कहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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