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जैनतत्त्वादर्श
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२. “लाभगत अन्तराय" ३. "वीर्यगत अन्तराय" ४. जो एक बेरी भोगिये सो भोग-पुष्पमालादि, तद्वत जो अंतराय सो "भोगान्तराय," ५ जो बार बार भोगने में आवे सो उपभोग-स्त्री आदि, घर आदि, कंकण कुण्डलादि, तद्गत जो अन्तराय सो "उपभोगान्तराय,” . “हास्य" - हसना, ७. "रति" - पदार्थों के ऊपर प्रीति, ८. “अरति" - रति से विपरीत सो अरति, ६. " भय" - सप्त प्रकार का भय, १०. "जुगुप्सा" - घृणा - मलीन वस्तु को देखकर नाक चढ़ाना, ११. “शोक" चित्त का विकलपना,
शक्तियो का घात करता है उसे अन्तराय कर्म कहते है । उसके दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय ये पांच भेद हैं ।
(१) दान की सामग्री उपस्थित हो, गुणवान् पात्र का योग हो और दान का फल ज्ञात हो तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नही होता वह " दानान्तराय" है ।
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(२) दाता उदार हो, दान की वस्तु उपस्थित हो,, याचना में कुशलता हो तो भी जिस कर्म के उदय से - याचक को लाभ न हो सके वह लाभान्तराय है । अथवा योग्य सामग्री के रहते हुवे भी जिस कर्म के उदय से जीवको अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नही होती, उसको “लाभान्तराय” कहते हैं ।
(३) वीर्य का अर्थ सामर्थ्य है । बलवान् हो, नीरोग हो और युवा भी हो तथापि जिस कर्म के उदय से जीव एक तृण को भी टेढ़ा न कर सके वह "वीर्यान्तराय" है ।