Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 467
________________ ર૪ जनतत्त्वादरी अन्नादिक भोगने में भी किसी को आह्लाद अर्थात् हर्ष दिखता है अरु दूसरे को रोगोत्पत्ति देखते हैं । यह फलभेद अवश्य सकारण है, नहीं तो नित्य सत्, नित्य असत् होना चाहिये | क्योंकि जो वस्तु कार्य कदे होत्रे, कदे न होवे सो कारण के बिना नहीं होता है । अथवा कारणानुमान से पुण्य पाप जाने जाते हैं । तहां कारणानुमान यह है- दान दि शुभक्रिया अरु हिंसादि अशुभ क्रिया का कोई फलभूत कार्य है, इनके कारण रूप होने से, कृप्यादि क्रियावत् । जो इन क्रियायों का फलभूत कार्य है, सो पुण्य पाप जानना । जैसे कि खेती करनेवाले की क्रिया का फल शालि, यव, और गेहूं आदिक हैं । प्रतिवादी :- जैसे कृप्यादि क्रिया का दृष्ट फल शाल्यादिक है, तैसे दानादिक और पशु हिंसादिक क्रिया का भी श्लाघा और निन्दा [यह दानी धर्मात्मा दयालु है, वह मांसभक्षी निर्दय है ] आदि दृष्ट फल ही है । तो फिर काहे को धर्माधर्म का अह फल कल्पना करना ? क्योंकि लोक जो हैं, सो बहुलता करके ए फल में ही प्रवृत्त होते हैं। इसी वास्ते खेती वाणिज्यादि हिंसादि क्रिया में बहुत लोग प्रवृत्त होते हैं, अरु अदृष्ट फल वाली दानादि क्रिया में थोडे लोक प्रवृत्त होते हैं । इस वास्ते कृषि हिंसादि अशुभ क्रियायों का अप्रफल पापरूप हम नहीं मानते । सिद्धान्ती :- जेकर तुमारा कहना ठीक होवे, तब तो परभव में फल के अभाव से मरण के अनंतर ही सर्व जीव

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