Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 486
________________ पंचम परिच्छेद ४४३ दोनों में परस्पर कार्य कारण भाव का नियम है । इस वास्ते यहां पर इतरेतर दूषण नहीं है, प्रवाह की अपेक्षा करके यह अनादि है । यह आश्रव पुण्य और पाप बंध का हेतु होने से दो प्रकार का है । यह दोनों भेदों के मिथ्यात्वादि उत्तर भेदों के उत्कर्षापकर्ष, अर्थात् अधिक न्यून होने से अनेक प्रकार हैं। इस शुभाशुभ मन वचन कार्य के व्यापार रूप आश्रव की सिद्धि अपनी आत्मा में स्वसंवेदनादि प्रत्यक्ष से है । दूसरों में वचन के व्यापार की प्रत्यक्ष से सिद्धि है, और शेष की तिस के कार्यप्रभव अनुमान तथा आप्तप्रणीत आगम से जाननी । आश्रव के उत्तर भेद चैतालीस हैं, सो लिखते हैं । पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत, पच्चीस किया, तीन योग, यह वैतालीस भेद हैं । जीव रूप तलाव में कर्म रूप पाणी जिस करके आवे, सो आश्रव है। तहां इन्द्रिय पांच हैं, तिनका स्वरूप इस प्रकार है- १. स्पर्श किया जावे स्वविषयस्पर्श लक्षण जिस करके, सो स्पर्शनेंद्रिय, २ . "रस्यते आस्वाद्यते रसोऽनयेति" आस्वा -" दित करें - रस लेवें जिस करके, सो रसना 'जिह्वा' इन्द्रिय । ३. सूंघा जावे गंध जिस करके, सो घ्राणेंद्रिय - नासिककेंद्रिय ४. चक्षु - लोचन । ५. सुना जावे शब्द जिस करके, सो श्रोत्र आश्रव के ४२ भेद

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