Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 487
________________ जैनतत्त्वादर्श द्रिय ! यह पांच इन्द्रिय मूल भेद की अपेक्षा से आश्रव के पांच कारण हैं । ___ "क्रुद्धयति कुप्यति येन"-सचेतन अचेतन वस्तु में जिस करके प्राणी सनिमित्त, निनिमित्त क्रोध करे, सो क्रोधवेदनीय कम है । तिस का उदय भी उपचार से क्रोध है । ऐसे ही मान, माया, अरु लोभ में भी समझ लेना । इस में मानमद आठ प्रकार का है १. जातिमद,.२. कुलमद, ३. वलमद, ४. रूपमद, ५. ज्ञानमद, ६. लाभमद, ७. तपोमद, ८. ऐश्वयमद । १. जातिमद उस को कहते हैं कि अपनी माता के पक्ष का अमिमान करे, जैसे कि मेरी माता ऐसे बड़े घर की बेटी है, इस तरें अपने आप को ऊंचा माने, अरु दूसरों को निंदे इस का नाम जातिमद है । २. कुलमद है, कि जो अपने पिता के पक्ष का अभिमान करे, जैसे कि मेरे पिता का बड़ा ऊंचा कुल है, इस तरें अपने आप को बड़ा माने, औरों को निंदेः तिस का नाम कुलमद है । ३. जो अपने बल का अभिमान करे, अरु दूसरों के वल को निंदे, सो बल मद । ४. जो अपने रूप का अभिमान करे, दूसरों के रूप को निंदे, सो रूपमद । ५. जो अपने आप को वड़ा ज्ञानी जाने, अरु दूसरों को तुच्छमति जाने, सो ज्ञानमद । १. जो अपने आप को बड़ा नसीचे वाला समझे, अरु दूसरों को हीन पुण्य वाला समझे, सो लाभमद । ७. जो तप करके अभिमान करे कि मेरे समान तपस्वी कोई नहीं, सो तपोमद । ८. जो अपने ऐश्वर्य का

Loading...

Page Navigation
1 ... 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495