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जैनतत्त्वादर्श स्वरूप ऐसे है । प्रतिलेखना-साधु की समाचारी करने से, मार्ग में विहार करने से, नदी आदिक के लंघने से, नाव में बैठ कर नदी पार उतरने से, नदी में गिरी हुई साध्वी आदि को काढ़ने से, वर्षा वर्षते हुए शौच जाने से, ग्लान-रोगी की लघुशंका को मेघ वर्षते में गेरने से, गुरु के शरीर में वायु तथा' थकेवां दूर करने के निमित्त मूठी चांपी करने से जो हिंसा होती है, सो सर्व द्रव्यहिंसा है। तथा श्रावक को जिनमंदिर बनाने से, जिनपूजा करने से, सर्मिवत्सल करने से, तीर्थयात्रा में जाने से, रथोत्सव, अट्ठाई महोत्सव, प्रतिष्ठा अरु अंजनशलाका करने से, तथा भगवान के सन्मुख जाने से, गुरु के सन्मुख जाने से, इत्यादि कर्तव्य से जो हिंसा होवे, सो सर्व द्रव्य हिंसा है, भावहिंसा नहीं। इस का फल अल्प पाप, अरु बहुत निर्जरा है। यह भगवती सूत्र में लिखा है । यह हिंसा साधु आदिक करते हैं, परन्तु उन का परिणाम उस अवसर में खोटा नहीं है, इस वास्ते द्रव्य हिंसा है।
यज्ञादि में जो जीव मारे जाते हैं, वह भी द्रव्य हिंसा क्यों नही ? इस प्रश्न का उत्तर मीमांसक मत खण्डन में लिख आये हैं, सो देख लेना। यह प्रथम भंग।
दूसरे भंग में द्रव्य हिंसा नहीं। परन्तु भाव हिंसा है । तिस का स्वरूप कहते हैं । जो पुरुष ऊपर से तो शांतरूप बना हुआ है, परन्तु उस का परिणाम अन्तःकरण खोटा