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पंचम परिच्छेद
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है । वो चाहता है कि मेरे शत्रु के घर में आग लग जावे, मरी पड़ जावे, नदी में डूब जावे, चोरी हो जावे, चंदीखाने में पड़े, तथा वेष बदल के भलामानस वन के ठगवाज़ी करे, तथा अगले का बुरा करने के वास्ते अनेक प्रकार से उस को विश्वास में लावे, तथा फकीरी का वेष करके लोगों से धन एकठा करे, इत्यादि । तथा साधु के गुण तो उस में नही हैं, परन्तु लोगों में अपने आपको गुणी प्रकट करे, इत्यादिक कामों में द्रव्य हिंसा तो नहीं करता, परन्तु भाव सेतो वो पुरुष हिंसक है, इस का फल अनन्त संसार में भ्रमण करने के सिवाय और कुछ नही । यह दूसरा भंग ।
तीसरे भंग में प्रकट रूप से इन्द्रियों के विषय में गृद्ध हो कर जीव हिंसा करनी, जैसे कि कसाई, खटिक, वागुरी, अहेडी - शिकारी करते हैं । तथा विश्वासघात करना अरु मन में आनंद मानना, इत्यादि का समावेश है । इस का फल दुर्गति है । यह द्रव्य से भी हिंसा है, अरु भाव से भी हिंसा है । यह तीसरा भंग ।
चौथा भंग द्रव्य से भी हिंसा नहीं, अरु भाव से भी हिंसा नहीं । उस को अहिंसा कहना यह भंग शून्य है, इस भंग वाला कोई भी जीव नहीं ।
ऐसे ही झूठ के भी चार भेद हैं । तिन का स्वरूप कहते हैं । साधु रास्ते में चला जाता है, तिस के आगे हो कर एक जंगली गौओं का तथा मृगादि जानवरों का टोला