Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 488
________________ ४४५, पंचम परिच्छेद अभिमान करे और दूसरों को तुच्छ समझे, सो ऐश्वर्यमद । इस प्रकार से मान के आठ भेद हैं । तथा तीसरी माया, सो "मयति गच्छति" अर्थात् जिसके प्रभाव से जीव परवंचना के निमित्त विकार को प्राप्त होवे, उस को माया-कपट कहते हैं । तथा जिस करके परधन में गृद्धि होवे, तिस को लोभ कहते हैं । इन चारों को कषाय कहते हैं। ... __ अब पांच अव्रत कहते हैं | तहां पांच इन्द्रिय, मनोवल, वचनवल, कायवल, उछासनिःश्वास, आयु, यह दस प्राण हैं.. इन दस प्राणों के योग से जीव को भी प्राण कहते हैं। तिन प्राणों का जो वध-हनना अर्थात् मारना, सो प्रथम प्राणवध अव्रत जानना । २. झूठ बोलने का नाम मृषावाद है। ३. दूसरों की वस्तु चुरा लेने का नाम अदत्तादान है। ४. स्त्री पुरुप का जो जोड़ा, तिस का नाम मिथुन है, इन दोनों के मिलने का जो कर्म, सो मैथुन-अब्रह्म सेवन । तथा ५. "परिगृह्य " सर्व ओर से अंगीकार किये जायं चार गति, के निबंधन कर्म जिस करके, सो परिग्रह । इन पांचों के चार चार भेद हैं, सो कहते हैं।। १. एक द्रव्य से हिंसा है, परन्तु भाव से नहीं, २. एक द्रव्य से हिंसा नही, परन्तु भाव से है, ३. एक हिसा आदि अत्रत द्रव्य से भी हिंसा है, अरु भाव से भी हिंसा के चार २ . है, ४. एक द्रव्य से भी हिंसा नही, अरु भाव भंग से भी हिंसा नहीं । यह प्रथम अव्रत के चार , भेद-कहे. । तिस में प्रथम भंग-भेद का

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