Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 494
________________ पंचम परिच्छेद - ४५१ 4 माया प्रधान प्रवृत्ति, सो मायाप्रात्ययिकी क्रिया । ८. मिथ्यात्व ही है प्रत्यय - कारण जिसका सो मिथ्यादर्शनप्रात्ययिकी क्रिया १०. संयम के विघातक कषायों के उदय से प्रत्याख्यान का न करना, अप्रत्याख्यानिकी क्रिया । ११. रागादि कलुषित भाव से जो जीव अजोव को देखना, सो दर्शन क्रिया । १२. राग, द्वेष, और मोह युक्त चित्तसे जो स्त्री आदिकों के शरीर का स्पर्श करना, सो स्पर्शन क्रिया । १३. प्रथम अंगीकार करे हुये पापोपादान- कारण अधिकरण की अपेक्षा से जो क्रिया उत्पन्न होवे, सो प्रातीत्यकी क्रिया । १४. समंतात् - सर्व भर से उपनिपात - आगमन होवे, स्त्री आदिक जीवों का जिस स्थान में ( भोजनादिक में ) सो समंतोपनिपात, तहां. जो क्रिया उत्पन्न होवे, सो सामंतोपनिपातिकी क्रिया । १५. जो परोपदेशित पाप में चिरकाल प्रवृत्त रहे, उस पाप की जो भाव से अनुमोदना करे, सो नैसृष्टिकी क्रिया । १६. अपने हाथ करके जो करे, जैसे कि कोई पुरुष बड़े अभिमान से क्रोधित हो कर जो काम उस के नौकर कर सकते हैं, उस काम को अपने हाथ से करे, सो स्वाहस्तिकी क्रिया । १७. भगवत् अर्हत की आज्ञा का उल्लघंन करके अपनी बुद्धि से जीवाजीवादि पदार्थो के प्ररूपण द्वारा जो क्रिया, सो आज्ञापनिकी क्रिया । १८. दूसरों के अन होये खोटे आचरण का प्रकाश करना, उन की पूजा का नाश करना, तिस से जो उत्पन्न होवे, सो वैदारणिकी क्रिया । १९. आभोग नाम

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