Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 485
________________ जैनतत्त्वादर्श हैं । असत् देव, असत् गुरु, असत् धर्म, इन स्वरूप श्रव तत्त्व का के विषे सत् देव, सत् गुरु, अरु सत् धर्म ऐसी जो रुचि, तिस का नाम मिथ्यात्व है । तथा हिंसादिक से निवृत्त न होना, तिस का नाम अविरति है । तथा प्रमाद - मद्यादि, कषाय-क्रोधादि अरु योग - मन वचन काया का व्यापार, ये मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अरु योगरूप पांच पुनर्वेधक जीव के ज्ञानावरणीयादिक कर्मों के बंध के हेतु हैं। इस को जैन मत में आश्रव कहते हैं । जिन से कर्मों का आश्रवण - आगमन होवे, सो आश्रव, तात्पर्य कि मिध्यात्वादि विषयक मन, वचन, काया का व्यापार ही शुभाशुभ कर्मबंध का हेतु होने से आश्रव है । प्रश्नः - बंध के अभाव में आश्रव की उत्पत्ति कैसे होगी ? जे कर कहो कि आश्रव से पहिला बन्ध है, तब तो वो बन्ध भी आश्रव हेतु के विना नहीं हो सकता, क्योंकि जो जिस का हेतु है, सो तिस के अभाव में नहीं हो सकता । जेकर होवेगा, तब तो अतिप्रसंग दूषण आजावेगा अर्थात् कारण के बिना कार्य उत्पत्ति का प्रसंग होगा । ४४२ उत्तरः—यह कहना असत् है, क्योंकि आश्रव को पूर्ववंधापेक्षया कार्यपना है, और उत्तरबंधापेक्षया कारणत्व है, ऐसे ही बंध को भी पूर्वोत्तर आश्रव की अपेक्षा करके बीजांकी तरे कार्यत्व और कारणत्व जानना । अतः बंध आश्रव कुर

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