Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 483
________________ ४४० जैनतत्त्वादर्श गोत्र वाले ऊंच गोत्र वालों के सदृश नहीं हो सकते हैं । जे कर कहो कि विलायत में सर्व एक सरीखे हैं, तो इस बात में क्या आश्चर्य है ? जहां ऊंच नीच पना नहीं, तहां सर्व जीवों ने एक सरीखा गोत्र कर्म का बंध करा है, इस वास्ते ही सर्व सरीखे हुये हैं । परंतु जहां ऊंच नीचपना माना जायगा, तहां अवश्यमेव ऊंच नीच गोत्र का व्यवहार होवेगा । अरु जो हीन जातियों को बुरे जानते हैं, सो वुद्धिमान् नहीं, क्योंकि बुराई तो खोटे कर्मों के करने से होती है। जेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो कर खोटे कर्म-जीव हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीगमन, परनिंदा, विश्वासघात, कृतघ्नता, मांसभक्षण, मदिरापान, इत्यादिक कुकर्म करेगा, हम उन को ज़रूर बुरा मानेंगे । अरु जो नीच जातिवाला है, सो भी जे कर सुकर्म करेगा-दया, सत्य, चोरी का त्याग, परस्त्री का त्याग, इत्यादिक करेगा, तो हम अवश्य उस को अच्छा कहेंगे। तो फिर हमारी समझ किस रीति से बुरी है ? अरु जो उस के साथ खाते नहीं है, यह कुल रूढि है । अरु जो नीच जाति वालों की निंदा-जुगुप्सा करते हैं, वे अज्ञानी हैं । निंदा जुगुप्सा तो किसी की भी न करनी चाहिये । अरु जो तिन की छूत मानते हैं, वो भी कुल रूढि है । जैसे-माता, वहिन, वेटी, भार्या, यह सब स्त्रीत्व रूप करके समान हैं, तो' भी इन में जैसे गम्य और अगम्य का विभाग है, तैसे ही जो मनुष्यत्व धर्म करके समान हैं, उन में भी ऊंच नीच

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