Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 482
________________ पंचम परिच्छेद क्योंकि तुम हमारे कहे का आभप्राय नहीं जानते । हमारा अभिप्राय तो यह है, कि जो कुछ भी इस जगत् में होता है, सो निमित्त के विना नहीं होता है, यह जो भिल्ल, कोल, धांगड, धाणक, गधीले, चंडाल, थोरी, वाघरी, सांसी, कंजर प्रमुख असभ्य जाति के लोग हैं, सो गामों के बाहिर जंगलों में रहते हैं । अनेक प्रकार के क्लेश सहते हैं । काले, दुर्गंध वाले, रूप में बुरे, कुत्सित शरीर वाले होते हैं । सुंदर खाने को नही मिलता । यह सब इन को किसी निमित्त से प्राप्त है ? अथवा निमित्त के विना ? जेकर कहो कि चिना ही निमित्त है, तब तो तुम नास्तिक मति हो । इस नास्तिक मत का खण्डन हम पूर्व लिख आये हैं। जे कर कहो कि सनिमित्तक है, तब तो ऐसे असभ्य जाति के कुल में उत्पन्न होने का कारण भी ज़रूर होना चाहिये, कि जिस के उदय से ऐसे कुल में उत्पन्न होता है । तिस का ही नाम नीच गोत्र है । इस नीच गोत्र के प्रभाव से और भी बहुत पाप प्रकृतियों का उदय होता है, जिस मे वे दुःखादि क्लेश पाते हैं । तथा च बुद्धिहीनता, जालमस्वभाव, निर्दयता, कुत्सित आहार, पशुओं की तरे जंगलों में वास, धर्म कर्म से पराङ्मुख, सत्संग रहित, गम्यागम्य के विवेक रहित, भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय विचार शून्यता, 'इन सब का मुख्य कारण नीच गोत्र है । जैसे धनवान् और निर्धन दोनों एक सरीखे नहीं हो सकते हैं, तैसे ही नीच

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