Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 477
________________ जैनतत्त्वादर्श अथ नामकर्म की चौतीस प्रकृति पाप रूप हैं। उन का नाम कहते हैं। नरक गति, तिर्यंचगति, नरनामकर्म की ३४ कानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेंद्रिय जाति, पाप प्रकृति द्वौद्रिय जाति,त्रींद्रियजाति, चतुरिंद्रिय जाति, पांच संहनन, पांच संस्थान, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्तगंध, अप्रास्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, उपघात, कुविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, असुभग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति । __इन का स्वरूप इस प्रकार है:-१. नरकगति उस को कहते हैं कि जिस के उदय से नारकी नाम पड़े, अरु जो नरकगति में ले जावे । २. ऐसे ही तिर्यंचगति भीजान लेनी। तथा ३. जिस के उदय से नरकगति में जाते हुये जीव को दो समयादि विग्रहगति करके अनुश्रेणी में नियत गमन परिणति होवे, सो नरकगति के सहचारी होने से नरकानुपूर्वी कहिये। ४. ऐसे ही तिर्यंचानुपूर्वी भी जान लेनी। तथा ५. जिस के उदय से एकेद्रिय जो पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, वनस्पति, इन में जीव उत्पन्न होता है, सो एकेंद्रिय जाति ! ६. ऐसे ही द्वींद्रिय जाति, ७. त्रींद्रिय जाति, ८. चतुरिंद्रिय जाति जान लेनी। तथा आद्य संहनन को वर्ज के शेष ऋषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिका, सेवार्त, यह पांचों संहननों के नाम हैं। इन का स्वरूप ऐसा है, कि "ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः, नाराच

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