Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 478
________________ पंचम परिच्छेद ४३५ उभयतो मर्कटबंधः" दोनों हाड़ों को दोनों पासे मर्कटबंध से बांध के पट्टे की आकृति के समान हाड़ की पट्टी पर जिस का वेष्टन है, सो दूसरा ऋषभनाराच संहनन है । तथा वज्र ऋषभ करके हीन दोनों पासे मर्कटबंध युक्त तीसरा नाराच नामक संहनन है। तथा एक पाले मर्कटबंध अरु दूसरे पासे कीलिका करके वींधा हुआ हाड़, यह चौथा अर्धनाराचनामा संहनन है । तथा ऋषभ अरु नाराच, इन करके वर्जित, मात्र कीलिका करके वांधे हुये दोनों हाड़, ऐसा जो हाड का संचय, सो चौथा कीलिका नामा संहनन है । दोनों हाड़ों का स्पर्श पर्यंत लक्षण है जिस में तथा मूठी चांपी कराने में आते - पीडित, सो सेवार्त्त नामा संहनन है । • तथा आद्य संस्थान को वर्ज के १. न्यग्रोध परिमंडल, २. सादि ३. वामन ४. कुब्ज, ५. हुंडक; यह पांच संस्थान हैं । इन का स्वरूप नीचे लिखते हैं, तहां १. न्यग्रोधवत् - बड़वृक्ष की तरें परिमंडल, न्यग्रोधपरिमण्डल है, जैसे बड़वृक्ष ऊपर से सम्पूर्ण अवयववाला होता है, तैसे नीचे नही होता है। ऐसे ही यह संस्थान नाभि के ऊपर तो विस्तार बाहुल्य, संपूर्ण लक्षणवाला होता है, अरु नाभि के नीचे सम्पूर्ण लक्षण नहीं, सो न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है । २. सादि, जिस में नाभि से नीचे का देह का विभाग तो लक्षणों करके पूर्ण, अरु नाभि से ऊपर का भाग लक्षण में विसंवादी होवे, तिस का नाम सादिसंस्थान है । ३. हाथ, पग, शिर,

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