Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 473
________________ ४३० जैनतत्त्वादर्श जागे, कपड़े बैंचने से जागे। जिस के उदय से ऐसी निद्रा आवे, तिस कर्म प्रकृति का नाम निद्रानिद्रा है । तथा ३. बैठे को, खडे को जो निद्रा आवे, तिस का नाम प्रचला है। जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्रा आवे, तिस कर्म का नाम प्रचला है । तथा ४. जो चलते को निद्रा आवे, तिस का नाम प्रचलाप्रचला है । जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्रा आवे, तिस कर्म की प्रकृति का नाम भी प्रचलाप्रचला है । तथा ५. स्त्यान नाम है पिंडीभूत का । सो पिंडीभूत है ऋद्धि-प्रात्मा की शक्ति जिस निद्रा में सो स्त्यानर्द्धि । तिस नींद में वासुदेव के बल से आधा बल होता है । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आवे, तिस का नाम स्त्यानर्द्धिकर्म है। इस निद्रा में कितनेक कार्य भी कर लेता है । परन्तु उस को कुछ खवर नहीं रहती है। अथ मोहकर्म की प्रकृति लिखते हैं । मोहे-तत्त्वार्थ श्रद्धानको विपरीत करे, सो मोहनीय है । मोहकर्म की २६ उस में मिथ्यात्वरूप जो मोह, सो मिथ्यात्वपाप प्रकृति मोहनीय कहिये । मोहकर्म की उत्तर प्रकृति मिथ्यात्व है । यद्यपि यह मिथ्यात्व अभिग्रहिक, अनभिग्रहिक, सांशयिक, अभिनिवेशिक, और अनाभोगादि अनेक प्रकार से है; तो भी यथावस्थित वस्तुतत्त्व के अश्रद्धान से सर्व भेदों को एक ही मिथ्यात्व रूप में गिना जाता है । यह प्रथम मिथ्यात्व मोह कर्म की प्रकृति है।

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