________________
पंचम परिच्छेद
४३१ अरु कषायमोहनीय के सोलां भेद हैं । क्योंकि यह क्रोधादिक भी तत्त्वश्रद्धान से भ्रष्ट कर देते हैं। सो सोलां भेद इस प्रकार से हैं। १. अनंतानुबंधी क्रोध, २. अनंतानुबंधी मान, ३. अनंतानुबंधी माया, ४. अनंतानुबंधी लोभ, ऐसे ही अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ । ऐसे ही प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ । ऐसे ही संज्वलन क्रोध, 'मान, माया, लोभ । 'यह सर्व सोलह भेद कषायमोहनीय के हैं। __ ये क्रोधादिक अनंत संसार के मूल कारण हैं । अनंतानुवंधी क्रोध का स्वभाव ऐसा है, कि जैसी पत्थर की ' रेखा । तात्पर्य कि जिस के साथ क्लेश हो जावे, फिर
जहां लगि जीवे, तहां लगि रोष न छोड़े, सो अनंतानुबंधी क्रोध है । तथा मान पत्थर के स्तंभ सरीखा, कदापि नमे नहीं । तथा माया बांस की जड समान-कदापि सरल न होवे । तथा लोभ, कृमि के रंग के समान-कदापि दूर न होवे । इस प्रकार क्रोध, मान, माया, अरु लोभ करके युक्त जो परिणाम है तिस का नाम अनंतानुबंधी क्रोधादिक कर्म प्रकृति है । तथा अप्रत्याख्यान यहां नञ् अल्पार्थ का सूचक है, सो थोड़ा भी प्रत्याख्यान, जिस के उदय होने से नहीं होता है, उस को अप्रत्याख्यान कहते हैं । अव इस का स्वरूप कहते हैं । क्रोध पृथ्विी की रेखा समान, मान हाड़ के स्तंभ समान, माया मेष के सींग समान, लोभ कर्दम के दाग