Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 466
________________ पंचम परिच्छेद ४२३ दिखाते हैं। सब में मनुष्यपना सदृश है, तो भी कोई स्वामी है, कोई दास है; कोई अपना ही नहीं किन्तु औरों का भी उदर भरते हैं, कोई अपना ही उदर नहीं भर सकते हैं । कोई देवता की तरे निरन्तर सुख भोग रहे हैं । इस वास्ते अनुभूयमान सुख दुःखों के निबंधन - कारण भूत पुण्य पाप ज़रूर मानने चाहियें । जब पुण्य पाप माने, तब तिनों के उत्कृष्ट फल भोगने के स्थान जो नरक स्वर्ग हैं, सो भी माने गये । जेकर न मानोगे, तब अर्द्ध जरतीय न्याय का प्रसंग होवेगा - आधा शरीर बूढ़ा, आधा जुवान । इस में यह प्रयोग अर्थात् अनुमान भी है -- सुख दुःख कारणपूर्वक हैं, अंकुरवत् कार्य होने से । ये पुण्य पाप सुख दुःख के कारण हैं, इस वास्ते मानने चाहियें | जैसे अंकुर का वीज कारण है । 1 पुण्य और पाप की सिद्धि प्रतिवादी:- नीलादिक जो मूर्त्त पदार्थ हैं, वे नीलादिक जैसे स्वप्रतिभासी अमूर्त ज्ञान के कारण हैं। ऐसे ही अन्न, फूल, माला, चन्दन, स्त्री आदिक मूर्त्त - दृश्यमान ही अमूर्त्त सुख के कारण होवेंगे, तथा सर्प, विष और कंडे आदिक दुःख के कारण हैं । तो फिर अदृष्ट पुण्य पाप की कल्पना काहे को करते हो ? सिद्धांती: - यह तुमारा कहना अयुक्त है, क्योंकि इस कहने में व्यभिचार है । तथाहि -दो पुरुषों के पास तुल्य साधन भी हैं, तो भी फल में बड़ा भेद दिखता है । तुल्य

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