Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 469
________________ ४२६ जैनतत्त्वादर्श 'देह है, सो पुण्य का कार्य है, अरु जो अशुभ देह हैं, सो पाप का कार्य है: यह कार्यानुमान है । और सर्वज्ञ के वचन प्रमाण से तो पुण्य पाप की सत्ता सिद्ध ही है । विशेषार्थ के वास्ते विशेषावश्यक की टीका देख लेनी | पाप अठारह प्रकार से वंधाता है, और व्यासी प्रकार से भोगने में आता है । यथा-पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, नव दर्शनावरण, मोहनीय कर्म की छत्रीस प्रकृति, नामकर्म को चौतीस प्रकृति, एक असातावेदनीय, एक नरकायु, एक नीचगोत्र, यह सर मिल कर व्यासी भे होते हैं । अब इन का विवरण लिखते हैं: t ज्ञानावरण कर्म की पांच प्रकृति - प्रथम - ज्ञान पांच ww.w * मतिचनावधिमनः पयायकेवलानि ज्ञानम् । [ तत्त्वा० ० १ सू० ९] १. जो ज्ञान इन्द्रिय तथा मन से होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । २. जो ज्ञान मतिपूर्वक है, और जिस ने शब्द तथा अर्ध की पर्यालोचना रहती है. वह श्रुतज्ञान कहलाता है । ७ इन दोनों जानों की समानता इस अंग में है, कि वे अपनी उत्पत्ति में इन्द्रिय तथा मन को अपेक्षा रखते हैं । परन्तु इन का भेद यह है कि मतिज्ञान शब्दोल्लेख रहित और श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख सहित होता है । इन 6 के सूक्ष्म विवेचन के लिये देखो पं सुखलाल जी की बनाई हुई तत्त्वार्थ सूत्र की गुजराती व्याख्या |

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