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पंचम परिच्छेद
કર विना यत्न के मोक्ष हो जावेंगे, और प्रायः संसार शून्य हो जावेगा । तव संसार में दुःखी कोई भी न होवेगा । दानादि शुभ क्रिया के करने वाले तथा तिस का शुभ फल भोगने वाले ही रहने चाहिये । परन्तु संसार में दुःखी बहुत दीखते हैं, अरु सुखी थोड़े दीखते हैं। इस से जाना जाता है कि जो कृषि, वाणिज्य, हिंसादिक्रिया निवधन अदृष्ट पाप का फल दुःखी जीवों को है, अरु सुखी जीवों को दानादि 'निबन्धन अदृष्ट धर्म का फल है। ' प्रतिवादीः-जो सुखी है, वो हिंसादि क्रिया से है, अरु जो दुःखी है, वो धर्म दानादिक के फल से है, ऐसे क्यों न माना जावे ?
सिद्धांती:-ऐसे नहीं होता, क्योंकि अशुभ क्रिया-हिंसादि के करने वाले ही संसार में बहुत हैं, अरु शुभ क्रिया दानादिक के करने वाले थोड़े हैं । यह कारणानुमान है । अथ कार्यानुमान कहते हैं-जीवों में आत्मत्व के अविशेष होने पर भी नर पशु आदि के शरीरों के कार्यरूप होने से उन की विचित्रता का कोई कारण है; जैसे घट का दण्ड, चक्र, चीवरादि सामग्री संयुक्त कुम्भकार । तथा ऐसे भी मत कहना कि दृष्ट माता पिता ही इस देह के कारण हैं, न कि पुण्य पाप । क्योंकि माता पिता एक सरीखे भी हैं, तो..भी पुत्रों के शरीर में विचित्रता देखते हैं, सो विचित्रता अदृष्टशुभाशुभ कर्म के विना नहीं हो सकती । इस वास्ते जो शुभ