Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 465
________________ કરર जैनतत्त्वादर्श प्रवर्तक होने से अशुभ है, आत्मा के साथ संबद्ध कर्म पुद्गल रूप है। ___ यद्यपि बंधतत्त्व के अंतर्भूत ही पुण्य पाप है, तो भी न्यारे जो कहे हैं, सो पुण्य पाप के विषे नानाविध परमत भेद के निरासार्थ है । सो परमत यह हैं । कोई एक मत वालों का यह कहना है, कि एक पुण्य ही है, पाप नहीं। तथा कोई एक मत वाले कहते हैं, कि एक पाप ही है, पुण्य नहीं। तथा कोई एक कहते हैं कि पाप पुण्य दोनों आपस में अनुविद्ध स्वरूप हैं, मेचक मणि सरीखे, मिश्र सुख दुःख फल के हेतु हैं । इस वास्ते साधारण रूप से पुण्य पाप एक ही वस्तु है। कोई एक ऐसे कहते हैं कि मूल से कम नहीं है, सर्व जगत् में स्वभाव से ही विचित्रता सिद्ध है। यह सर्व पूर्वोक्त मत मिथ्या हैं, क्योंकि सुख दुःख दोनों न्यारे न्यारे अनुभव में आते हैं । तिस वास्ते तिन के कारणभूत पुण्य पाप भी स्वतन्त्र ही अंगीकार करने योग्य हैं, अकेला पाप वा अकेला पुण्य वा मिश्रित मानने ठीक नहीं। तथा जो कर्माभाववादी नास्तिक अरु वेदांतिक कहते हैं, कि पुण्य पाप जो हैं, सो आकाश के फूल सदृश असत् जानने; सत् नहीं। तो फिर पुण्य पाप के फल भोगने के स्थान-नरक स्वर्ग क्योंकर माने जावे ? ; पुण्य पाप के अभाव से सुख दुःख निर्हेतुक उत्पन्न होने चाहिये, सो तो प्रत्यक्ष से विरुद्ध है । सोई

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