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तृतीय परिच्छेद
१८१ विस्मय रस के पूर में मग्न हो कर, आंख फाड़ कर देखना वर्जे; परन्तु जो राग रहित दृष्टि करी कदाचित् देखने में प्रा जावे तो दोष नहीं । तथा अपने शरीर का संस्कार करनास्नान, विलेपन, धूप करना, नख, दांत, केश, आदि का सुधार करना, कंगी सुरमा से विभूषा करनी, इत्यादिक शरीर संस्कार न करे । क्योंकि स्त्री के रमणोक अंग देखने से जैसे दीप शिखा में पतंगिया जल जाता है, ऐसे कामी पुरुष भी कामाग्नि में जल जाता है । तथा शरीर जो है, सो सर्व अशुचिता का मूल है, इस का जो श्रृंगार करना है, सो अज्ञानता है । मलिन वस्तु की कोथली के ऊपर जे कर चन्दन घिस कर लगा दिया जाय, तो क्या वह कोथली चन्दन की हो जावेगी? यह शरीर अन्त में मशान की राख की एक मुट्ठी बन जायेगा, फिर किस वास्ते इस शरीर की शोभा करने में व्यर्थ काल खोवे है ? ५. प्रणीत-स्निग्ध, मधुरादि रस युक्त पदार्थों का अधिक आहार करना, तथा रूखा भोजन भी खूब पेट भर कर करना, ए दोनों ही प्रकार के पाहारका त्याग करे, क्योंकि जो पुरुष निरन्तर स्निग्ध, मधुर रस का आहार करेगा, उस के ज़रूर विकार उत्पन्न होगा; तव तो वेदोदय करी वो अवश्य कुशील सेवेगा । 'अरु रूक्ष भोजन भी प्रमाण से अधिक नहीं करना, क्यों कि अधिक रूक्ष भोजन करने से भी काम उत्पन्न होता है, तथा अधिक खाने से शरीर को पीडा भी उत्पन्न हो जाती है, विशूचिका