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जैनतत्त्वादर्श में काया को उपयोग पूर्वक प्रवृत्त करना । ए सतारां भेद संयम के हैं।
अब वैयावृत्त्य के दश भेद कहते हैं:आयरिय उवज्झाए, तवस्सि सेहे गिलाण साहुसुं। समणोन संघ कुल गण, वेयावच्चं हवइ दसहा ॥
__ [प्रव० सा०, गा० ५५७] अर्थः-१. ज्ञानादिक पांच प्राचार को जो पाले, सों
प्राचार्य, अथवा सेवा के योग्य जो हो सो दस प्रकार का प्राचार्य, २. जिन के समीप पाकर विनय वैयावृत्त्य पूर्वक शिष्य पढ़ें सो उपाध्याय, ३. तप जो
करे, सो तपस्वी, ४. जिस ने नवा ही साधुपना लिया है, सो शैक्ष, ५. ज्वरादि रोग वाला जो साधु सो ग्लान, ६. जो धर्म से गिरते को स्थिर करे, सो स्थविर साधु, ७ जिस साधु की अपने समान-एक सामाचारी होवे, सो समनोश, ८. साधु, साध्वी, श्रावक अरु श्राविका इन चारों का जो समुदाय, सो संघ, ६ बहुते सजातीय-एक सरीखे गच्छ का जो समूह, सो कुल-चन्द्रादिक, [ एक प्राचार्य की वाचना वाले साधुओं का जो समूह, सो. गच्छ] कुलों का जो समुदाय, सो गण-कोटिकादि । इन पूर्वोक्त प्राचार्यादिक दसों का अन्न, पानी, वस्त्र, पात्र, मकान, पीठ, फलक, संस्तारक प्रमुख धर्म साधनों करके जो साहा