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जैन तत्त्वादर्श
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तुमारा यह सर्व कहना, तुमारे अन्त करण में वास
करने वाले मोह का विलास है, क्योंकि प्रात्मा के प्रभाव से अर्थात् उसके अस्तित्व का अस्वीकार करने से बंध मोक्षादिकों का सामानाधिकरण्य – एकाधिकरणत्व नहीं होगा, सोई दिखाते हैं ।
हे बौद्धो ! तुम आत्मा को तो मानते नहीं हो, किन्तु पूर्वापर टूटे हुए ज्ञान क्षणों की संतान हो को मानते हो । जब ऐसे माना, तव तो अन्य को बंध हुआ, और अन्य की मुक्ति हुई । तथा क्षुधा धौर को लगी, तृप्ति और की हुई । तैसे ही अनुभविता और हुआ, अरु स्मर्त्ता और हो गया । जुलाब और ने लिया, अरु राज़ी-रोग रहित और हो गया । तपक्लेश तो और ने करा, परन्तु स्वर्गादि का सुख और ने भोगा । एवं पढ़ने का अभ्यास तो किसी और ने करा, परन्तु पढ़ कोई और गया । इत्यादि अनेक अतिप्रसंग होने से यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। जेकर कहो कि सन्तान की अपेक्षा से बंध मोक्षादिकों का एक अधिकरण हो सकता है । तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सन्तान ही किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है । जैसे कि, सन्तान जो है सो सन्तानी से भिन्न है ? या अभिन्न ? जेकर कहो कि भिन्न है, तब तो फिर दो विकल्प होते हैं, अर्थात् वह संतान नित्यं है ? वा अनित्य ? जेकर कहो कि नित्य है, तब तो तिस को
*समान अधिकरण अर्थात् एक स्थान में होना ।
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