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चतुर्थ परिच्छेद
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सकता, दूसरी तरे से भी हो सकता है । तो फिर केवल पाप मात्र फल रूप इस शौनिकवृत्ति - हिंसक वृत्ति के अनुकरण करने से क्या लाभ है ?
तथा छ्गल अर्थात् बकरे के मांस का होम करने से पर राष्ट्र को वश करने वाली सिद्धया देवी के परितोष होने का जो अनुमान है, सो भी ठीक नहीं । क्योंकि यदि कोई क्षुद्र देवता इस से प्रसन्न भी हों, तो वे अपनी पूजा को देख अरु जान कर ही राज़ी हो जाते हैं, परंतु मलिन- वीभत्स मांस के खाने से राज़ी नहीं होते । जेकर होम करी हुई वस्तु को वे खाते हैं, तब तो हूयमानहवन किये जाने वाले निंव पत्र, कडुवा तेल, आरनाल, धूमांशादि द्रव्य भी तिन का भोजन हो जावेगा । वाह तुमारे देवता क्या ही सुंदर भोजन करते हैं !
अतः वास्तव में द्रव्य, क्षेत्र, आदि सहकारी कारणों से युक्त उपासक की भावपूर्ण उपासना ही विजय आदि अभीष्ट फल की उत्पत्ति में कारण है, यही मानना युक्तियुक्त है । जैसे कि अचेतन होने पर भी चिन्तामणि रत्न, मनुष्यों के पुण्योदय से ही फलप्रद होता है । तथा अतिथि आदि की प्रीति भी संस्कार संपन्न पक्वान्नादिक से हो सकती है, फिर तिन के वास्ते महोक्ष, महाजादि की कल्पना करना निरी मूर्खता है ।