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जैनतत्त्वादर्श करके अभ्यासपूर्वक देखे जाते हैं । तथाहि-चोही शास्त्र जेकर ऊहापोहादि करके वार वार विचारिये, तब सूक्ष्म सूक्ष्मतर अर्थावबोध का उल्लास होता है, अरु स्मृति पाटव की अपूर्व वृद्धि होती है । ऐसे एक शास्त्रविषे अभ्यास से सूक्षमार्थ भेतृत्व शक्ति के होने से, अरु स्मृतिपाटव के होने से अन्य शास्त्रों में भी सहज से ही सूक्षमार्थावबोध, अरु स्मृतिपाटव का उल्लास हो जाता है । ऐसे अभ्यास हेतुक सूक्षमार्थ भेतृत्वादिक मनोज्ञान के विशेष कार्य देखे जाते हैं, अरु किसी को अभ्यास के विना भी देखते है। तिस वास्ते उस में अवश्य परलोक का अभ्यास हेतु है । क्योंकि कारण के साथ कार्य का अन्वय व्यतिरेकपना है। इस प्रतिबंध से अदृष्ट और उस के कारण की भी सिद्धि हो जाती है । इस वास्ते जीव का परलोक में जाना प्रमाण सिद्ध है। __ तथा देह क्षयोपशम का हेतु है, इस वास्ते देह भी हम कथंचित् ज्ञान का उपकारी मानते हैं। देह के दूर होने से सर्वथा ज्ञान की निवृत्ति नहीं होती। जैसे अग्नि से घट को कुछ विशेषता है, परन्तु अग्नि की निवृत्ति होने पर घट का मूल से उच्छेद नहीं हो जाता है, केवल कछुक विशेष दूर हो जाता है, जैसे सुवर्ण की द्रवता । ऐसे इहां भी देह की निवृत्ति होने से कोई एक ज्ञान विशेष तत्प्रतिबद्ध ही निवृत्त होता है, परन्तु समूल ज्ञान का उच्छेद नहीं होता है । जेकर देह ही ज्ञान का निमित्त मानोगे, अरु देह की निवृत्ति से ज्ञान को