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पंचम परिच्छेद पंचम परिच्छेद।
अब पंचम परिच्छेद में धर्मतत्त्व का स्वरूप लिखते हैं:धर्म उस को कहते हैं, जो दुर्गति में जाते हुए आत्मा
को धार रक्खे, एतावता दुर्गति में न जाने धर्म तत्व का देवे। तिस धर्म के तीन भेद हैं-१. सम्यक् स्वरूप ज्ञान, २. सम्यक् दर्शन, ३. सम्यक् चारित्र ।
इन तीनों में से प्रथम ज्ञान का स्वरूप संक्षेप से लिखते हैं:
यथावस्थिततत्वानां, संक्षेपाद्विस्तरेण वा । योऽववोधस्तमत्राहुः, सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः॥
[ यो शा०, प्र० १ श्लो० १६] अर्थः-यथावस्थित-नय प्रमाणों करके प्रतिष्ठित है स्वरूप जिन का, ऐसे जो जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष रूप सप्त तत्त्व, तथा प्रकारांतर में पुण्य पाप के अधिक होने से नव तत्त्व होते हैं, इन का जो अवबोध अर्थात शान, सो यम्यक् ज्ञान जानना । वह ज्ञान क्षयोपशम के विशेष से किसी जीव को संक्षेप से अरु किसी जीव को विस्तार से होता है। इन नव तत्त्वों में से प्रथम तत्त्व जो जीव है, तिस को आत्मा भी कहते हैं । अर्थात् जीव कहो अथवा आत्मा कहो, दोनों एक ही वस्तु के नाम हैं। .