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पंचम परिच्छेद
४१६ अंग हैं। तथा अंगुल्यादि उपांग हैं। शेष नखादि अंगोपांग हैं । जिस के उदय से जीव को आदि के तीन शरीरों में अंगोपांग की उत्पत्ति होवे, तिस का नाम तिन शरीर के अंगोपांग है । सो यह है-१३. औदारिक अंगोपांग, १४. वैक्रिय अंगोपांग, १५. आहारक अंगोपांग । १६. जिस के उदय से जीव आदि का संहनन-वज्रऋषभनाराच पाता है, सो वज्रऋषभनाराचसंहनन नामकर्म । तहां वज्र नाम कीलिका, अरु ऋषभ नाम परिवेष्टन-पट्ट अर्थात् ऊपर लपेटने का हाड़, तथा नाराच-मर्कटबंध है । इन तीनों रूपों करके जो उपलक्षित है, तिस को वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । हाड के संचय सामर्थ्य का नाम संहनन है । यह संहनन औदारिक शरीर वालों में ही होता है । १७. जिस के उदय से जीव को आदि के समचतुरस्र संस्थान की प्राप्ति होवे । सो समचतुरस्र संस्थाननामकर्म की प्रकृति जाननी । तहां सम हैं चारों अस्र जिस के अर्थात् तुल्य शरीर लक्षण युक्त प्रमाण सहित, ऐसा आद्य संस्थान सुन्दराकार मनोहर होवे । अव वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, यह चारों कहते हैं । तिन में जिस के उदय से १८. वर्ण-कृष्णादिक, १६. रस-तिक्तादिक, २०. गंध-सुरभ्यादिक, २१. स्पर्श-मृदु आदिक, यह चारों शुभ होवे, सो वर्णादि चार प्रकृति जाननी । २२. जिस कर्म प्रकृति के उदय से जीव का शरीर न तो भारी होवेजिस को जीव उठा न सके, अरु न तो हलका होवे-जो