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जैनतत्त्वादर्श गमन करता है, अरु नियत मर्यादा पूर्वक अंगों का विन्यास, अर्थात् स्थापन करने वाली नाम कर्म की प्रकृति को *आनुपूर्वी कहते हैं, उस में जो मनुष्य गति आने वाली, जीव के उदय में है, सो मनुष्यानुपूर्वी । ऐसे ही ६. देवानुपूर्वी । ७. जिस के उदय मे जीव पंचेंद्रियता को पाता है, सो पंचेंद्रिय जाति । अथ पांच शरीर कहते हैं। ८. जिस के उदय से जीव औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके औदारिक शरीर की रचना करता है, अर्थात् औदारिक शरीर के रूप में परिणमन करता है, सो औदारिक शरीर नाम कर्म की प्रकृति है । ऐसे ही ९. वैक्रियक, १०. आहारक, ११. तेजस, १२. कार्मण, इन पांचों शरीरों की प्रकृतियों का अर्थ कर लेना । तथा अंगोपांग तीन हैं, उस में अंगशिर प्रमुख, उपांग-अंगुली प्रमुख हैं, शेष अंगोपांग हैं । यथा शिर. छाती, पेट, पीठ, दो वाहु, दो साथलां, यह आठ
* जीव की स्वाभाविक गति श्रेणी के अनुसार होती है। आकाशप्रदेशो की पंक्ति को श्रेणी कहते है। एक शरीर को छोड दूसरा शरीर धारण करने के लिये जब जीव समश्रेणी से अपने उत्पत्ति-स्थान के प्रति जाने लगता है, तब आनुपूर्वानामकर्म, उसे, उस के विश्रेणीपतित उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचा देता है । जीव का उत्पत्ति-स्थान यदि सम श्रेणी में हो, तो आनपूर्वीनामकर्म का उदय नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वक्र गति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजुगति में नहीं। कर्म० १ (हिं०) पृ० ८९] .