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पंचम परिच्छेद
४१७ यह जो पुण्य की बात कही है, सो कुछ जैनियों को ही दान देने के वास्ते नहीं । किन्तु किसी मत वाला भी क्यों न हो, जो कोई भी अनुकंपा करके किसी को दान देवेगा, वो पुण्य का उपार्जन करेगा । परन्तु इतना विशेष है, कि पात्र को जो दान देना है, सो तो पुण्य अरु मोक्ष दोनों का ही हेतु है । तथा जो अनुकंपा करके सर्वजनों को देवेगा, सो केवल पुण्य का ही उपार्जन करेगा । जैनमत के किसी शास्त्र में पुण्य करने का निषेध नही । जैनमत के ऋषभदेवादि चौवीस तीर्थंकर भये हैं, उन्हों ने दीक्षा लेने से पहिले पक करोड़, आठ लाख सोनये दिन दिन प्रति एक वर्ष तक दिये हैं। इसी कारण से जैनमत में प्रथम स्थान दान धर्म का है । तथा जैन मत के शास्त्रों में और भी कई तरे से पुण्य का उपार्जन करना लिखा है। अथ पुण्य का फल वैतालीस प्रकार करके भोगने में आता
है। सो चैतालीस प्रकार लिखते हैं:-१. जिस ४० प्रकार के उदय से जीव साता-सुख भोगता है, का पुण्य सो सातावेदनीय । २. जिस के उद्य से
जीव क्षत्रियादि उच्च कुल में उत्पन्न होता है, सो उच्च गोत्र । ३. जिस के उदय से जीव मनुष्य गति में उत्पन्न होता है, सो मनुष्य गति । ४. जिस के उदय से जीव देव गति में उत्पन्न होता है, सो देवगति । ५ जिस के उदय से जीव अपांतराल गति में नियत देश-अनुश्रेणी