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पंचम परिच्छेद
४११ विना नहीं है, क्योंकि मृतक के शरीर में ज्वर कदापि नहीं होता है। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक करके अग्नि सचित्त जाननी । यहां यह प्रयोग है-अंगार आदि का प्रकाश आत्मा के संयोग से प्रगट हुआ है, प्रकाश परिणाम शरीरस्थ होने से, खद्योत देह के परिणामवत् । तथा आत्मा के संयोग पूर्वक शरीरस्थ होने से ज्वरोष्मवत् अंगारादिकों में उष्णता है । तथा ऐसे भी मत कहना कि सूर्य की उष्मा के साथ यह हेतु अनेकांतिक है; क्योंकि सूर्यादिकों में जो उष्मा है, उस को भी आत्मसंयोग पूर्वक ही हम मानते हैं । तथा अग्नि सचेतन है, क्योंकि यथायोग्य आहार के करने से पुरुष के शरीर की तरह उस में वृद्धि आदि विकार की उपलब्धि होती है । इत्यादि लक्षणों करके अग्नि की सचेतनता है।
प्रश्नः-वायुकाय-पवन में सचेतनता की सिद्धि कैसे करोगे?
उत्तरः-जैसे देवता का शरीर शक्ति के प्रभाव करके, अरु मनुष्यों का शरीर अंजनादि विद्या मंत्र के प्रभाव करके अदृश्य हो जाने पर नेत्रों से नही दीखता, तो भी विद्यमान चेतना वाला है । ऐसे ही सूक्ष्म परिणाम होने से परमाणु की तरे वायुकाय भी नेत्रों से नहीं दीखता, तो भी विद्यमान चेतना वाला है । अग्नि करके दग्ध पाषाण खण्डगत अग्नि की भांति वह स्पष्ट उपलब्ध नहीं होता । प्रयोग यह है-कि वायु चेतनावान् है, दूसरों की प्रेरणा के विना नियम