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जैनतत्त्वादर्श
आकाश में वादल आदिक विकार से उत्पन्न हुआ जल स्वतः ही अर्थात् आप ही उत्पन्न हो कर पड़ने से मत्स्यवत् सचे - तन है । तथा शीतकाल में बहुत शीत के पड़ते हुए नदी आदिकों में अल्प जल के हुए अल्प अरु बहुतके हुए बहुत उष्मा देखते हैं, सो उष्मा सजीव हेतुक ही है । अल्प या बहुत प्रमाण में मिलित मनुष्यों के शरीरों से जैसे अल्प या बहुत उष्मा उत्पन्न होती है । जल में शोत स्पर्श ही हैं, ऐसे वैशेषिक कहते हैं। तथा शीतकाल में शीत के बहुत पड़ने से प्रातःकाल में तलावादिक के पश्चिम दिशा में खड़े होकर जब तलावादि को देखिये, तो तिस के जल से वाष्प का समूह निकलता हुआ दीखता है, सो भी जीवहेतुक ही है। इस का प्रयोग ऐसे है - शीतकाल में जो बाप्प है, सो उष्ण स्पर्श वाली वस्तु से उत्पन्न होता है, बाप्प होने से, शीत काल में शीत जल करके सींचे हुए मनुष्य शरीर के वाष्पवत् । अरु जो कूड़े कचरे में से धूआं - वाष्प निकलता है, तहां भी हम पृथ्वीकाय के जीव मानते हैं । इन सब हेतुओं से जल सजीव सिद्ध होता है।
प्रश्नः - तेजःकाय में जीव किस तरे सिद्ध होता है ? उत्तर:- जैसे रात्रि में खद्योत का शरीर जीव शक्ति से बना हुआ प्रकाशवाला है, ऐसे अंगारादिक भी प्रकाशमान होने से सचेतन हैं । तथा जैसे ज्वर की उष्मा जीव के प्रयोग विना नहीं होती, ऐसे ही अग्नि में भी गरमी जीवों के