Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 456
________________ पंचम परिच्छेद पुद्गल की गति में उपष्टंभक-सहायक है । यद्यपि जीव अरु पुद्गल स्वशक्ति से चलते हैं, तो भी चलने में धर्मास्तिकाय अपेक्षित कारण है । जैसे मच्छी जल में तरती तो अपनी शक्ति से है, परन्तु अपेक्षित कारण जल है । ऐसे ही जीव अरु पुद्गल की गति में सहायक धर्मास्तिकाय है। जहां लगि यह धर्मास्तिकाय है, तहां लगि लोक की मर्यादा है । जेकर धर्मास्तिकाय न मानिये, तो लोकालोक की मर्यादा न रहेगी। अरु जहां लगि धर्मास्तिकाय है, तहां लगि जीव पुद्गल गति करने हैं। इस का पूरा स्वरूप जैनमत के ग्रन्थ पढ़े बिना नहीं जाना जा सकता। दूसरा अधर्मास्तिकाय द्रव्य है । इस का सर्व स्वरूप धर्मास्तिकाय की तरे जानना । परन्तु इतना विशेष है, कि यह द्रव्य, जीव पुद्गल की स्थिति में सहायक है । जैसे पथिक जन जब चलता चलता थक जाता है, तव किसी वृक्षादिक की छाया में वैठता है, सो वैठता तो वो आप ही है, परन्तु आश्रय विना नहीं बैठ सकता है । ऐसे ही जीव, पुद्गल स्थित तो आप ही होते हैं, परन्तु अपक्षित कारण अधर्मास्तिकाय है। तीसरा आकाशास्तिकाय द्रव्य है, इस का स्वरूप भी धर्मास्तिकायवत् जानना । परन्तु इतना विशेष है, कि यह द्रव्य लोकालोक सर्वव्यापी है, अरु अवगाह दान लक्षण है• जीव पुद्गल के रहने में अवकाश दाता है । यह तीनों द्रव्य

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