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चतुर्थ परिच्छेद तो अयुक्त है। उपादान वो होता है, कि जिस के विकारी होने से कार्य भी विकारी होवे, जैले मृत्तिका घट का कारण है । परन्तु देह के विकार से संवेदन विकारी नहीं होता, अरु देह विकार के बिना भी भय शोकादिको करके संवेदन को विकारी देखते हैं । इस वास्ते देह संवेदन का उपादान कारण नहीं । उक्तं चः
अविकृत्य हि यद्वस्तु, यः पदार्थों विकार्यते । उपादानं न तत्तस्य, युक्तं गोगवयादिवत् ॥
[नं० सू० टीका-जीव० सि०] इस कहने से, जो यह कहते हैं, कि माता पिता का चैतन्य पुत्र के चैतन्य का उपादान कारण है, सो भी खण्डित हो गया। तहां माता पिता के विकारी होने से पुत्र विकारी नहीं होता है । अरु जो जिसका उपादन होता है, सो अपने कार्य से अभिन्न होता है, जैसे माटी और घट । यदि माता पिता का चैतन्य पुत्र के चैतन्य का उपादान होवे, तो माता पिता का चैतन्य पुत्र के चैतन्य के साथ अभेद रूप होगा । तव तो पुत्र का चैतन्य भी माता पिता के चैतन्य से अभिन्न होना चाहिये । इसी वास्ते तुमारा कहना किसी काम का नही है । इस हेतु से भूनों का धर्म वा भूतों का कार्य चैतन्य नहीं है । इस वास्ते आत्मा सिद्ध है । विशेष करके चार्वाक मत का खण्डन देखना होवे, तो सम्मतितर्क, स्याद्वाद