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चतुर्थ परिच्छेद
३६६ निवर्त्य होता है । अनिवर्त्य विकार जैसे काष्ठ में अग्नि की करी हुई श्यामता मात्र, अरु निवर्त्य विकार जैसे अनिकृत सुवर्ण में द्रवता । वायु आदिक जो दोष हैं, सो निवर्त्य विकार के जनक हैं, क्योंकि उन की चिकित्सा देखी जाती है । जेकर वायु आदि दोष से भी अनिवर्त्य विकार होवें, तब तो चिकित्सा विफल हो जावेगी । ऐसे भी मत कहना कि मरने से पहिले दोष निवर्त्य विकार के आरंभक हैं, अरु मरण काल में अनिवर्त्य विकार के आरंभक हैं। क्योंकि एक ही एक जगे दो विरोधी विकारों का जनक नहीं हो सकता ।
प्रतिवादी:-व्याधि दो प्रकार की लोक में प्रसिद्ध है, एक साध्य, दुसरी असाध्य । उस में साध्य जो है, सो चिकित्सा से दूर हो सकती है, अरु दूसरी असाध्य जो दूर नहीं होती है। और व्याधि दोषों की विषमता से होती है। तो फिर दोष उक्त दो प्रकार के विकारों के आरम्भक-जनक क्यों नहीं ?
सिद्धान्तीः - यह भी असत् है, क्योंकि तुमारे मत में असाध्य व्याधि ही नही हो सकती है, तथाहि -व्याधि का जो असाध्यपना है, सो आयु के क्षय होने से होता है । क्योंकि तिसी व्याधि में समान औषध वैद्य के योग से भी कोई मर जाता है, कोई नहीं मरता है । अरु जो प्रतिकूल कर्मों के उदय करके श्वित्रादि व्याधि है, वो हजार औषध से भी साधी नहीं जाती है । यह दोनों प्रकार की व्याधि परमेश्वर के वचनों के जानने वालों के मत में ही