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जैनतत्त्वादर्श रत्नाकरादि शास्त्र देख लेने । इस परिच्छेद में जो कुगुरु के लक्षण कहे हैं, वे लक्षण चाहे जैन के साधु में होवे, चाहे अन्य मत के साधु में होवें, उन सर्व को कुगुरु कहना चाहिये।
इति श्री तपागच्छीय मुनि श्रीवुद्धिविजय शिष्य मुनि आनंदविजय-आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादशैं
चतुर्थः परिच्छेदः संपूर्णः