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जैन तत्त्वादर्श
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स्थावर जो हैं, सो सर्व एक ही - स्पर्शैद्रिय वाले हैं । कृमि, गंडोआ, जोक, सुंडी, इत्यादि जीव एक स्पर्शन अर्थात् शरीर इंद्रिय, दूसरी रसनेंद्रिय अर्थात् मुख, इन दो इन्द्रिय वाले हैं। कीड़ी, जूं सुसरी, ढोरा, इत्यादि जीव दो पूर्वोत अरु एक नासिका, यह तीन इंद्रिय वाले हैं । माखी, भ्रमर, सहत की माखी, भिड़, धमोड़ी, बिच्छू, इत्यादि जीव तीन पूर्वोक्त अरु चौथा नेत्र, इन चार इंद्रिय वाले हैं। नारक, तिर्यच, मनुष्य, अरु देवता, ये पंचेंद्रिय जीव हैं । अर्थात् ये सब स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र और कान, इन पांच इंद्रिय वाले हैं। स्थावर जीव भी दो तरे के हैं, एक सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले सूक्ष्म, दूसरे बादर नाम कर्म के उदय वाले चादर । यह स्थावर अरु त्रस जीव समुच्चय रूप से छे पर्याप्ति वाले हैं । इन छे पर्याप्तियों के नाम यह हैं:१. आहार पर्याप्त, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्रासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति, ६. मन पर्याप्ति ।
अथ पर्याप्ति का स्वरूप लिखते हैं । आहार - भोजन, तिस के ग्रहण करने की जो शक्ति, तिस का नाम आहार पर्याप्त कहते हैं । शरीर रचने की जो शक्ति, तिस का नाम शरीर पर्याप्त है । इन्द्रिय रचने की शक्ति, इंद्रिय पर्याप्त है। ऐसे ही सर्वत्र जान लेना । जिस जीव की पूर्वोक्त छे पर्याप्तियें अधूरी हैं, उस को अपर्याप्ति कहते हैं। स्थावर जीवों में आदि की चार पर्याप्त हैं । अरु दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौरिंदिय,