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जैनतत्त्वादर्श अरु कमों के वश से गति आगति करता है। तब कैसे दृष्टांत अरु दार्टान्त की साम्यता होवे ? जैसे देवदत्त किसी विवक्षित ग्राम में कितनेक दिन रह कर फिर ग्रामांतर में जा रहता है, तैसे ही आत्मा भी विवक्षित भव में देह को त्याग कर भवांतर में देहांतर रच कर रहता है। ___ अरु जो तुमने कहा था कि संवेदन देह का कार्य है, सो भी ठीक नहीं । क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होने से चाक्षुष आदि संवेदन कथंचित् देह से भी उत्पन्न होता है । परन्तु जो मानस ज्ञान है, वो कैसे देह का कार्य हो सकता है ? तथाहि सो मानस शान देह से उत्पद्यमान होता हुआ इन्द्रियरूप से उत्पन्न होता है ? वा अनिन्द्रिय रूप से उत्पन्न होता है ? वा केशनखादि लक्षण से उत्पन्न होता है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं, जेकर इंद्रियरूप से उत्पन्न होवे, तब तो इंद्रिय ज्ञानवत् वर्तमान अर्थ का ही ग्राहक होना चाहिये । क्योंकि इंद्रिय ज्ञान जो है, सो वर्तमान अर्थ ही ग्रहण कर सकता है। इस की सामर्थ्य से उपजायमान मानस ज्ञान भी इन्द्रिय ज्ञानवत् वर्तमान अर्थ का ही ग्रहण कर सकेगा । अथ जब चक्षु रूपविषय में व्यापार करता है, तब रूपविज्ञान उत्पन्न होता है, शेष काल में नहीं। तब वो रूपविज्ञान वर्तमानार्थ विषय है, क्योंकि वर्तमानार्थ विषय ही चक्षु का व्यापार होने से। अरु रूपविषय वृत्ति के अभाव में मनोज्ञान है, तिस वास्ते नियत