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चतुर्थ परिच्छद नहीं *"उत्सर्गापवादयोरपवादविधिबलीयानिति न्यायात् ।" और तुमारे जैनों के मत में भी हिंसा का एकांत--सर्वथा निषेध नहीं है, कितनेक कारणों के उपस्थित होने से पृथिव्यादिक जीवों की हिंसा करने की आज्ञा है । तथा जब कोई साधु रोग से पीड़ित होता है, "असंस्तरे" अर्थात् असमर्थ होता है, तब ॥ आधाकर्मादि आहार के ग्रहण करने की भी आज्ञा है । ऐसे ही हमारे मत में याज्ञिकी हिंसा जो है, सो देवता और अतिथि की प्रीति के वास्ते पुष्टालंबनरूप होने से अपवाद रूप है । इस वास्ते उस के करने में दोष नहीं।
सिद्धांती:-अन्यकार्य के वास्ते उत्सर्ग वाक्य, अरु अन्य कार्य के वास्ते अपवाद कहना, यह उत्सर्ग अपवाद कदापि नहीं हो सकता । किन्तु जिस अर्थ के वास्ते शास्त्र में उत्सर्ग कहा है। उसी अर्थ के वास्ते अपवाद होवे, तब ही उत्सर्ग अपवाद हो सकता है । तभी ये दोनों उन्नत निम्नादि व्यवहारवत् परस्पर सापेक्ष होने से एकार्थ के
* उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में अपवाद विधि बलवान् होती है, इस न्याय से-सर्व सम्मत विचार से ।
|| साधु के निमित्त जो खान पानादि वस्तु तैयार की जावे, उस को आधार्मिक कहते हैं । उत्सर्गमार्ग मे साधु को इस प्रकार के आहार को ग्रहण करने की आज्ञा नहीं, परन्तु अपवाद मार्ग में रोगादि की अवस्था में उस के ग्रहण करने की साधु को आज्ञा है।