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चतुर्थ परिच्छेद दूसरे पक्ष में असर्वज्ञ-दोप युक्त के रचे हुए शास्त्र का विश्वास नहीं हो सकता । जेकर कहो कि अपौरुषेय है, तव तो संभव ही नहीं हो सकता है । ववन रूप जो क्रिया है, सो पुरुष के द्वारा ही सम्भव हो सकती है, अन्यथा नहीं । आर जहां पर पुरुषजन्य व्यापार के विना भी वचन का श्रवण हो, वहां पर अदृश्य वक्ता की कल्पना कर लेनी होगी। इस वास्ते सिद्ध हुआ, कि जो साक्षर वचन है, सो पौरुषेय ही है, कुमारसंभवादि वचनवत् । वचनात्मक ही वेद है, अतः पौरुषेय है । तथा चाहुः* ताल्यादिजन्मा ननु वर्णवर्गों, वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादि ततः कथं स्या
दपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥ तथा श्रुति को अपौरुषेय अंगीकार करके भी तुमने उस के व्याख्यान को पौरुषेय ही अंगीकार करा है । अन्यया-श्रुति के अर्थ का व्याख्यान यदि पौरुषेय न माना जाय तो "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इस का किसी ___* यह निश्चित है, कि वर्गों का समुदाय ताल्लादि से उत्पन्न होता है। और वेद वर्णात्मक है, यह भी स्फुट है । तथा ताल्बादि स्थान पुरुष के ही होते हैं। इसलिय वेद अपौरुषेय है, यह कैसे कह सकते है ।
+ स्वर्ग की इच्छा रखने वाला अग्निहोत्र यज्ञ सवन्धी आहुति देवे,
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