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चतुर्थ परिच्छेद धातु को ज्वर में वही लंधनं कुपथ्य हो जाता है । इसी प्रकार किसी देश में ज्वर के रोगी को दधि खिलाना पथ्य समझा जाता है, तथा किसी दूसरे देश में वही कुपथ्यं माना गया है। + तथाच वैद्याःकालाविरोधि निर्दिष्टे, ज्वरादौ लंघनं हितम् । ऋतेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामकृतज्वरात ॥ जैसे प्रथम तो अपथ्य का परिहार करना, अरु तहां' ही अवस्थांतर में तिस का भोगना, सो दोनों ही जगे रोग के दूर करने का प्रयोजन है । इस से सिद्ध हुआ कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही एक वस्तु विषयक हैं।
परन्तु तुमारे तो उत्सर्ग और अर्थ के वास्ते है, तथा
+ सैद्यों का कथन है कि
वायु, श्रम, क्रोध, शोक और काम से उत्पन्न हुए ज्वर को छोड़ कर अन्य ज्वरों मे काल-वसन्त, ग्रीष्मादि ऋतु के अनुसार लंघन कराना हितकर है । इस श्लोक से अर्थ में तो सर्वथा समानता रर्खता हुआ चरक संहिता चिकित्सा स्थान का यह निम्न लिखित श्लोक है । और उद्धृत श्लोक इसी की प्रतिच्छाया रूप प्रतीत होता है ।
ज्वरे लघनमेवादात्रुपदिष्टमृते ज्वरात् । क्षयानिलभयक्रोधकामशोकश्रमोद्भवात् ॥
[अ० ३ श्लो०३८]