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चतुर्थ परिच्छेद एक और भी बात है कि, जे कर भूतों का कार्य चेतना होवे, तव तो सकल जगत् प्राणिमय ही हो जावे । जेकर कहो कि परिणति विशेष का सद्भाव न होने से सकल जगत् प्राणिमय नहीं होता है । तो वो परिणति विशेष का सद्भाव सर्वत्र किस वास्ते नही होता है ? क्योंकि वह परिणति भी भूतमात्र निमित्तक ही है । तब कैसे उस का किसी जगे होना और किसी जगे न होना सिद्ध होवे ? तथा वो परिणति विशेष किस स्वरूप वाली है ? जे कर कहो कि कठिनत्वादि रूप है, क्योंकि काष्ठादि में घुणादि जंतु उत्पन्न होते हुये दीखते। हैं तिस वास्ते जहां कठिनत्वादि विशेष है, सो प्राणिमय है, शेष नहीं । परन्तु यह भी व्यभिचार देखने से असत् है । अवशिष्ट भी कठिनत्वादि विशेष के होने पर कहीं होता है, और कहीं नहीं होता, अरू किसी जगे कठिनत्वादि विशेष विना भी संस्वेदज घने आकाश में संमूछिम उत्पन्न होते हैं।
एक और भी बात है कि कितनेक समान योनिके जीव भी विचित्र वर्ण संस्थान वाले दीखते हैं । गोबर आदि एक योनि वाले भी कितनेक नीले शरीर वाले हैं, अपर पीत शरीर वाले हैं, अन्य विचित्र वर्ण वाले हैं, अरु संस्थान भी इन का परस्पर भिन्न है । जे कर भूत मात्र निमित्त चैतन्य होवे, तब तो एक योनिक सव एक वर्ण संस्थान वाले होने चाहिये; परन्तु सो तो होते हैं नहीं । तिस वास्ते आत्मा ही तिस तिस