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चतुर्थ परिच्छेद
३८६ परिणामांतर भूत स्त्रभाव होने से भूतों की तरे चैतन्य का व्यंजक ही हो सकता है, आवरक नही । जे कर कहो कि भूतों से अतिरिक्त वस्तु है, तो यह कहना बहुत ही असंगत है । क्योंकि भूतों से अतिरिक्त वस्तु मानने से " चत्वार्येव पृथ्यादिभूतानि तत्त्वमिति" इस कहने में तत्त्व संख्या का व्याघात हो जावेगा ।
एक और भी बात है, कि यह जो चैतन्य है, सो एक एक भूत का धर्म है ? वा सर्व भूत समुदाय का धर्म है ? एक एक भूत का धर्म तो है नहीं । क्योंकि एक एक भूत में दीखता नहीं, और एक एक परमाणु में संवेदन की उपलब्धि नहीं होती । जेकर प्रति परमाणु में होवे, तब तो पुरुष सहस्र चैतन्य वृंद की तरे परस्पर भिन्न स्वभाव होवेगा, परंतु एक रूप चैतन्य नहीं होवेगा । अरु देखने में एक रूप आता है । " अहं पश्यामि” अर्थात् मैं देखता हूं, मैं करता हूं, ऐसे सकल शरीर का अधिष्ठाता एक उपलब्ध होता है ।
जे कर समुदाय का धर्म मानोगे, सो भी प्रत्येक में अभाव होने से असत् है । क्योंकि जो प्रत्येक अवस्था में असत् है, वो समुदाय में भी असत् ही होगा, सत् नहीं हो सकता है; जैसे बालु कणों में तेल की सत्ता नहीं है । जेकर कहो कि प्रत्येक मद्यांग में तो मद शक नहीं है, परन्तु समुदाय में हो जाती है। ऐसे चैतन्य भी हो जावे, तो क्या