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चतुर्थ परिच्छेद
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से उसी व्यास ऋषि ने भाव अग्निहोत्र - भाव यज्ञ का पहले ही प्रतिपादन कर दिया है ।
चार्वाक मत व. आत्मसिद्धि
अथ चार्वाक मत का खण्डन लिखते हैं :- वार्वाक कहता है, कि जब शरीर से भिन्न आत्मा ही नहीं है, तब ये मतावलंबी पुरुष, किस वास्ते शोर करते हैं ? वास्तव में जैन, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, जैमिनीय जो षड् दर्शन हैं, सो केवल लोगों को भ्रम में डाल कर उन से भोग विलास वृथा ही छुड़ा देते हैं। वास्तव में तो आत्मा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । इस वास्ते हमारा मत ही सब से अच्छा है । जेकर आत्मा है, तो कैसे तिस की सिद्धि है ?
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सिद्धान्ती:- प्रति प्राणी स्वसंवेदन प्रमाण चैतन्य की अन्यथानुपपत्ति से सिद्धि है । तथाहि यह जो चैतन्य है, सो भूतों का धर्म नहीं है । जेकर भूतों का धर्म होवे, तब तो पृथ्वी की कठिनता की तरे इस का सर्वत्र सर्वदा उपलंभ होना चाहिये परन्तु सर्वत्र सर्वदा उपलंभ होता नहीं। क्योंकि लोपादिकों में अरु मृतक अवस्था में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती ।
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प्रतिवादी :- लोप्टादिकों में अरु मृतक अवस्था में भी चैतन्य है | परन्तु केवल शक्ति रूप करके है, इस वास्ते उपलब्ध नहीं होता
सिद्धांती: --- यह तुमारा कहना अयुक्त है । वो शक्ति, क्या
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