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जैनतत्त्वादर्श दोष है ? यह भी अयुक्त है, क्योंकि मद के प्रत्येक अंग में मद शक्त्यनुयायी माधुर्यादि गुण दीखते हैं । इक्षुरस में माधुर्य और धातकी फूलों में थोड़ी सी विकलता उत्पादक शक्ति जैसे दीखती है, ऐसे सामान्य प्रकार से भूतों में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती । तव फिर भूत समुदाय कैसे चैतन्य हो सकता है ? जे कर प्रत्येक अवस्था में रहा हुआ असत् समुदाय में सत् हो जावे, तब तो सर्व समुदाय से सर्व कुछ हो जाना चाहिये। . .
.. ____एक और भी बात है, कि जे कर तुमने चैतन्य को धर्म माना है, तब तो धी भी अवश्य धर्म के अनुरूप ही मानना चाहिये । जेकर अनुरूप न मानोगे, तव तो जल अरु कठिनता इन दोनों को भी धर्म धर्मी मानना चाहिये । तथा ऐसे भी मत कहना, कि भूत ही धर्मी हैं, क्योंकि भूत चैतन्य से विलक्षण हैं । तथाहि, चैतन्य वोध स्वरूप, अरु अमूर्त है, परंतु भूत इस से विलक्षण हैं। तब इनका कैसे परस्पर धर्म धर्मी भाव हो सकता है ? तया यह चैतन्य भूतों का कार्य भी नहीं है, क्योंकि अत्यन्त वैलक्षण्य होने से इन का कार्य कारण भाव कदापि नहीं होता है। उक्तंच:
काठिन्यावोधरूपाणि, भूतान्यध्यक्षसिद्धितः । ..चेतना च न तद्रपा, सा.कथं तत्फलं भवेत् ।।
[शा० स०, स्तु० १ श्लो० ४३]