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जैनतत्त्वादर्श
साधक होसकते हैं। जैसे जैनों के यहां संयम पालने के वास्ते नवकोटि विशुद्ध आहार का ग्रहण करना उत्सर्ग है । तैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार आपत्ति के समय में गत्यंतर के अभाव से पंचकादि यतना से अनेषणीयादि आहार का ग्रहण करना अपवाद है, सो भी संयम ही के पालने के वास्ते है । तथा ऐसे भी मत कहना कि जिस साधु को मरण ही एक शरण है, तिस को गत्यंतर अभाव की असिद्धि है । क्योंकि आगम में कहा है कि:
+ सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा | मुच इवायाओ, पुणो विसोही न याविरई ॥ [ओ० नि० गा० ४६ ]
भावार्थ:- सर्वत्र संयम का संरक्षण करना । परन्तु जेकर संयम के पालने में प्राण जाते होवें, तो संयम में दूषण लगा कर भी अपने प्राणों की रक्षा करनी। क्योंकि प्राणों के रहने से प्रायश्चित्त के द्वारा उस पाप से छूट जावेगा, अरु अविरति भी नहीं रहेगी । तथा जो वस्तु किसी रोग में किसी अवस्था में वस्तु उसी रोग में किसी अन्य अवस्था में जैसे बलवान् पुरुष को ज्वर में लंघन पथ्य है,
कर शुद्ध भी हो आयुर्वेद में भी
अपथ्य है, सोई
पथ्य है । तथा
परन्तु क्षीण
+ छाया - सर्वत्र संयमं संयमादात्मानमेव रचेत् । मुच्यतेऽतिपातात् पुनर्विशुद्धि र्नचाविरतिः ॥