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जैनतत्त्वादर्श नियामक के न होने से "श्वमांस भक्षयेत्” यह अर्थ भी क्यों न हो जावे ? इस वास्ते शास्त्र को पौरुषेय मानना ही उचित है.। यदि तुमारे हठ ले वेद को अपौरुषेय भी मानें, तो भी तिस को प्रमाणता नहीं हो सकती । क्योंकि प्रमाणता जो है, सो आप्त पुरुषाधीन है । जब वेद प्रमाण न हुये, तव तिन वेदों का कहा हुआ तथा वेदानुसारी स्मृति भी प्रमाण भूत नहीं । इस वास्ते हिंसात्मक याग और श्राद्धादि विधि प्रमाण्य विधुर ही है।
प्रतिवादी:-जो तुमने कहा है कि *"न हिंस्यात् सर्वा भूतानीत्यादि" इस श्रुति करके जो हिंसा का निषेध है, सो औसनिक अर्थात सामान्य विधि है। अरु वेदविहित जो हिंसा है, सो अपवाद विधि है अर्थात विशेष विधि है । तब अपवाद करके उत्सर्ग बाधित होने से वैदिकी हिंसा दोष का कारण इस श्रुतिवाक्य का-अमिहा श्वा तस्य उत्रं मांस-अग्निहोत्रं, ऐसा विग्रह करके कुत्ते के मास की आहुति देवे, ऐसा अर्थ किया जा सकता है। क्योंकि श्रति के अर्थ का व्याख्याता, यदि किसी पुरुष को न माना जाय, तो उस में किसी प्रकार का नियम न रहने से, अपनी इच्छा के अनुसार जैसे चाहो, वैसा अर्थ करने में कोई प्रतिवन्धक नहीं हो सकता । इस से सिद्ध हुआ कि श्रुति के अर्थ की तरह श्रति-वेद को भी पौरुषेय-पुरुष प्रणीत मानना ही युक्तिसंगत है।
* किसी भी प्राणो की हिंसा मत करो।