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जैनतत्त्वादर्श सकता है, और न ही पुत्रादि को मिल सकता है, किंतु बीच में ही लटकता रहता है, अर्थात् निरर्थक है।] ___ तथा पापानुवन्धी जो पुण्य है, वो तत्व से पाप रूप ही है। जे कर कहो कि ब्राह्मणों को खिलाया हुआ उन कोपितरों को मिलता है। तो इस कथन में तुम को ही सत्यता प्रतीत होती होगी । वास्तव में तो ब्राह्मणों ही का उदर मोटा दिखलाई देता है। किंतु उन के पेट में प्रवेश करके खाते हुए पितर तो कदापि दिखाई नहीं देते । क्योंकि भोजनावसर में ब्राह्मणों के उदर में प्रवेश करते हुए पितरों का कोई भी चिन्ह हम नहीं देखते, केवल ब्राह्मणों ही को तृप्त होते देखते हैं। ___ तथा जो तुमने कहा था, कि हमारे पास आगम प्रमाण है, सो तुमारा आगम पौरुषेय है ? वा अपौरुषेय ? जे कर कहो कि पौरुषेय है, तो क्या सर्वज्ञ का करा हुआ है ? वा असर्वज्ञ का रचा हुआ है ? जे कर आद्य पक्ष मानोगे, तब तो तुमारे ही मत की व्याहति होगी । क्योंकि तुमारा यह सिद्धांत है:* अतीन्द्रियाणामर्थानां, साक्षाद्दष्टा न विद्यते ।
नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः॥ * अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात् द्रष्टा -देखने वाला इस संसार में कोई नहीं, इस लिये नित्य वेद वाक्यों से ही उन की यथार्थता का निश्चय होता है।